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________________ [समराइच्चकहा भवणारं। कहकहवि उपविट्ठा सयणीएगदेसे । तओ झत्ति उट्रिओ बंधुदेवो । ससज्भसा य अहयं । तमो भए चित्तियं हंत किमे' ति। सज्झसेणं न पुच्छिो एसो। अजंपिऊण निमित्तं सयणीयमुवनओ ति। जाया से मिच्छा वियप्पा, अडाणखेएण य समागया कहवि निहा । अहं पि कम्मपरि. जामाणुरूवेण गहिया महासोएणं। संपत्ता अणाचिक्षणीयमवत्यंतरं। उवविट्ठा धराए। तओ नारयस्स विय महाउपद्धा कहकहवि चोलिया मे रयणी। समागयाओ सहीओ। निग्गओ बंधुदेवो । तओ में अस्थाणसंठियं सहा पेच्छिऊण जंपियं मे सहीहिं 'सामिणि, किमयं' ति । तओ उक्कडयाए सोगाणलस्स निपाए सरणीणं पणयाए मईए अहणोययाए पओयणस्स न जंपियं मए ति। विद्दाणाओ सहीओ । संगग्गयक्खरं पुणो जंपियमिमीहि सामिणि, किमयं' ति । तओ तव्वयणसवणसमागयमईए पिकं मए-हला, न याणामि, भागधेयाणि मे पुच्छह ति। साहिओ रयणिवइयरो। चितियं च जाहि। किमेत्य कारणं ति । न ताव इहलोयदोसो सामिणीए, न यावि सो अकुसलो सत्थवाहपुत्तो; तामवियन्वं एत्य कम्मपरिणईए ति। एत्यंतरम्मि अपुच्छिऊण सय णवग्गं निग्गओ बंधुदेवो 'महंत कथं कथमपि उपविष्टा शयनीयैकदेशे । ततो झटित्युत्थितो बन्धुदेवः । सस ध्वसा चाहम् । ततो मया चिन्तितम्-'हन्त किमेतद्' इति । साध्वसेन न १ष्ट एषः । अजल्पित्वा निमित्तं शयनीयमपगतइति । जातास्तस्य मिथ्याविकल्पाः, अध्वखेदेन च समागता कथमपि निद्रा। अहमपि कर्मपरिणामानुरूपेण गृहीत महाशोकेन । सम्प्राप्ताऽनाख्यानीयम वस्थान्तरम् । उपविष्टा धरायाम्। ततो नारकस्येव यथाऽऽयुष्काद्धा कथं कथमपि व्यतिक्रान्ता मे रजनी । समागताः सख्यः । निर्गतो बन्धुदेवः । ततो मामास्यानसंस्थितां तथा प्रेक्ष्य जल्पितं मे सखीभिः 'स्वामिनि ! किमेतद्' इति । तत उत्कटतया शोकानलस्य निरुद्धतया सरणीनां प्रनष्टतया मत्या अकथनीयतया प्रयोज-स्य न जल्पतं मयेति । विद्राणाः सख्यः । सगदगदाक्षरं पुनर्जल्पितमाभिः 'स्वामिनि किमेतद' इति । ततस्तद्वचनश्रवणसमागत मत्या जल्पितं मया--सख्यो ! न जानामि, भागधेया न मे पृच्छतेति । कथितो रजनीव्य तकरः । चिन्तितं चाभिः । किमत्र कारणमिति । न तावदिहलोकदोषः स्वामिन्याः, न चापि सोऽक शलः सार्थवाहपुत्रः, ततो भवितव्यमत्र कर्मपरिणत्येति । अत्रान्तरे अपृष्ट वा स्वगनवर्ग निर्गतो बन्ध देवो 'महन्मे बन्धुदेव ने सोने की चेष्टा की । अनन्तर स्वामिनी ! 'सो जाइए'- ऐसा कहकर सखियाँ निकल गयीं। भवनद्वार बन्द कर दिया। जिस किसी प्रकार शय्या के एक ओर बैठी। अनन्तर शीघ्र ही बन्धुदेव उठ खड़ा हुआ और घबरायी हुई मैं भी खड़ी हो गयी। पश्चात् मैंने सोचा-हाय, यह क्या ? घबराहट के कारण बन्धुदेव से नहीं पूछा। कारण न कहकर (यह) शय्या पर आ गया। उसे झूठा विकल्प उत्पन्न हुआ और मार्ग की थकावट के कारण किसी प्रकार नींद आ गयी। कर्म के परिणाम के अनुरूप मुझे भी महाशोक ने जकड़ लिया। मैं अकथनीय अवस्था को प्राप्त हो गयी। धरती पर बैठ गयी। अनन्तर नरक जैसी जिस किसी प्रकार रात बितायी। सखियाँ आयीं, बन्धदेव निकल गया । पश्चात मुझे अस्थान में स्थित देख मेरी सखियों ने कहा- 'स्वामिनी ! यह क्या ?' अनन्तर शोकरूपी अग्नि की उत्कटता, मागों की रुकावट, बद्धि का नष्ट हो जाना तथा प्रयोजन की अकथनीयता के कारण मैं नहीं बोली । सखियाँ द:खी हो गयीं। गदगद अक्षरों में इन लोगों ने पुनः कहा'स्वामिनी, यह क्या ? अनन्तर उनके वचनों के सनने से बुद्धि आ जाने के कारग मैंने कहा-'सखियो, मैं नहीं जानती हैं। मेरे भाग्य से पूछो।' रात्रि का वत्तान्त कहा। इन लोगों ने सोचा-क्या कारण है ? स्वामिनी का इस लोक का कोई दोष नहीं है, वह वणिकपुत्र अकुशल भी नी है अत: यहाँ कर्म की परिणति ही होनी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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