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सत्तमो भवो]
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मे पओयणं' ति साहिऊण सूरिलस्स समागओ चंपं। अवच्चसिणेहाणुबंधेण कुविया य मे जणणिजणया बंधुदेवस्स। को असंववहारो। अइक्कंतो कोइ कालो। जाया य मे चिता। ईइसो एस संसारो, सुलहाणि एत्थ दुक्खाणि, दुल्लहा चरणपडिवत्ती, चंचलं जीवियं । ता अलं मे किलेसायासकारएण संसारहेउणा गिहासमेणं: पवज्जामि पव्वज्ज ति। एत्थंतरम्मि समागया अहासंजमविहारेणं विहरमाणो जसमई नाम पवत्तिणि ति । साहिओ मए निययाहिप्पाओ जणणिजणयाणं, बहुमओ य तेसि । अणुसासिया य हिं पवन्ना जहाविहीए पव्वज ति।
इओ य परिणीया बंधुदेवेण कोसलाउरे नंदस्स धूया सिरिमई, भाउणा य से तीए चेव भइणी कतिमइ ति। अइक्कतो कोइ कालो। समुप्पन्नो पणओ, आणीयाओ चंपं, पबूढो घरवासो। एत्थंतरम्मि अहं अहासंजमं विहरमाणी समं पवत्तिणीए समागया चंपं। अप्पमायओ पणटपुव्ववइयरसइया पविट्टा गोयरं। तत्थ वि गया बंधुदेवगेहं । दिट्ठा सिरिमइकंतिमईहिं। पुत्वभवन्भासओ जाया ममोवरि पोई। पडिलाहिया फासुपदाणेणं । समागयाओ डिस्सयं । साहिओ तासि धम्मो, परिणओ
प्रयोजनम' इति कथयित्वा सूरिलस्य (श्वसुरस्य) समागतश्चम्पाम् । अपत्यस्नेहानुबन्धेन कुपितौ च मे जननीजनको बन्धुदेवस्य । कृतोऽसंव्यवहारः । अतिक्रान्तः कोऽपि कालः । जाता च मे चिन्ता । ईदश एष संसारः, सुलभान्यत्र दुःखानि, दुर्लभा चरणप्रतिपत्तिः, चञ्चलं जीवितम् । ततोऽलं मे क्लेशायासकारकेन संसारहेतुना गृहाश्रमेण, प्रपद्ये प्रव्रज्यामिति । अत्रान्तरे समागता यथासंयमविद्वारेण विहरन्ती यशोमति म प्रतिनीति । कथितो मया निजाभिप्रायो जननीजनकयोः, बहमतश्च तयोः । अनुशिष्टा च ताभ्यां प्रपन्ना यथाविधि प्रव्रज्यामिति ।
इतश्च परिणीता बन्धुदेवेन कोशलापुरे नन्दस्य दुहिता श्रीमती, भ्राता च तस्य तस्या एव भगिनी कान्तिमतीति । अतिक्रान्तः कोऽपि कालः । समुत्पन्नः प्रणयः, आनीते चम्पाम । प्रव्यूढो (प्रवत्तो) गहवासः । अत्रान्तरेऽहं यथासंयम विहरन्ती समं प्रवर्तिन्या समागता चम्पाम् । अप्रमादतः प्रनष्टपूर्वव्यतिकरस्मतिका प्रविष्टा गोचरम् । तत्रापि गता बन्धुदेवगृहम् । दृष्टा श्रीमतीकान्तिमतीभ्याम् । पूर्वभवाभ्यासतो जाता ममोपरि प्रीतिः। प्रतिलाभिता प्रासुकदानेन । समागते प्रतिश्रयम।
चाहिए । इसी बीच स्वजनों से बिना पूछे 'श्वसुर से मुझे बहुत बड़ा कार्य है'--- ऐसा कहकर बन्धुदेव निकल गया और चम्पानगरी में आया। सन्तान के प्रति स्नेह होने के कारण मेरे माता-पिता बन्धुदेव पर कुपित हुए। उससे सम्बन्ध नहीं रखा। कुछ समय बीत गया। मुझे चिन्ता उत्पन्न हुई- यह संसार ऐसा ही है, यहाँ पर दुःख सुलभ हैं, चारित्र की प्राप्ति दुर्लभ है, जीवन चंचल है। अतः क्लेश और परिश्रम करनेवाले संसार के हेतुभूत गृहस्थाश्रम से मेरा कोई प्रयोजन नहीं है, दीक्षा लेती हूँ। इसी बीच संयमानुसार विहार करती हुई यशोमति नाम की प्रवर्तिनी (साध्वियों की अध्यक्ष) आयी। मैंने अपना अभिप्राय माता-पिता से कहा, उन दोनों ने स्वीकृति दे दी। उन दोनों की आज्ञा लेकर मैंने विधिपूर्वक दीक्षा ले ली।
इधर बन्धुदेव ने कोशलापुर में नन्द की पुत्री 'श्रीमती' से विवाह किया और उसके भाई के साथ श्रीमती की बहिन कान्तिमती का विवाह हुआ। कुछ समय बीता। प्रेम उत्पन्न हुआ, दोनों को चम्पा में ले आया । बन्धुदेव गृहवास में प्रवृत्त हो गया। इसी बीच मैं संमयानुसार प्रवर्तिनी के साथ विहार करती हुई चम्पा आयी। पहली घटना की जिसकी स्मृति नष्ट हो गयी थी, ऐसी मैं प्रमादरहित होकर मार्ग में प्रविष्ट हुई। उस पर भी बन्धुदेव के घर प्रविष्ट हुई । वहाँ पर श्रीमती और कान्तिमती ने देखा। पूर्वभव के अभ्यास के कारण उन दोनों की मुझ
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