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________________ [ समराइच्च कहा । तओ जायाओ सावियाओ । भणियं च णाहि कायव्वो तए अम्ह गेहागमणेण पसाओ, जेण परियो वि णे उवसमइति । अणुन्नाया पवत्तिजोए समारद्धा जाइउं । ५७० एत्थंतरम्मि उइणं मे नियडिनिबंधणं बीयं कम्मं । तओ सिरिमइकंतिमईणं ममोवरि असाहारणभत्तिबहुमाणेह विहिओ एयासि भवणवाणमंतरो । चितियं च णेणं पेच्छामि ताव अत्थावहारेण यासि कीsi साहुणीए उवरि चित्तं ति । अन्नया गया अहमिमीण गेहं । दिट्ठा य कंतिमई वासभवणम्मि पडलयट्ठियं हारं पोयमाणी । अन्भुट्टिया अहमणाए, कयं विहिवंदणयं, उवणीयाई आसणाई, उवविट्टा अहयं साहुणीओ य । कया धम्मदेसणा । पयट्टा अहयं पडिस्सयं । तओ तीए भणियं - अज्जे, अज्ज तुह पारणयं ति; ता गेण्हावे हि एवं फासुयपहेणयं । तओ मए भणियाओ साहुजीओ 'गेहह' त्ति । निग्गयाओ साहुणीओ कंतिमई य । एत्थंतरम्मि वाणमंतरपओएण चित्त माओ चेव ओरिओ मोरो । गहिओ णेण हारो, पविखत्तो उयरम्मि, ठिओ य निययथामे । तओ मए चितिथं - किमेयमच्छरीयं, अहवा मयहरियं पुच्छिस्सामि ति । निग्गया वासगेहाओ, कथितस्तयोर्धर्मः परिणतश्च । ततो जाते श्राविके । भणितं च ताभ्याम् - कर्तव्यस्त्वया आवयोगृहागमनेन प्रसादः, , येन परिजनोऽप्यावयोरुपशाम्यति इति । अनुज्ञाता प्रवर्तिन्या समारब्धा यातुम् । अत्रान्तरे उदीर्णं मे निकृतिनिबन्धनं द्वितीयं कर्म । ततः श्रीमतीकान्तिमत्योर्ममोपरि असाधारणभक्ति बहुमानाभ्यां विस्मित एतयोर्भवनवानमन्तरः । चिन्तितं च तेन - प्रेक्षे तावदर्थापहारेण एतयोः कीदृशं साध्या उपरि चित्तमिति । अन्यदा गताऽहमनयोर्गृहम् । दृष्टा च कान्तिमती वासभवने पटकस्थितं हारं प्रोयमाना । अभ्युत्थिताऽहमनया, कृतं विधिवन्दन कम्, उपनीतान्यासनानि, उपविष्टाऽहं साध्व्यश्च । कृता धर्म देशना । प्रवृत्ताऽहं प्रतिश्रयम् । ततस्तया भणितम् - आयें ! अद्य तव पारणकमिति, ततो ग्राहयैतत्प्रासुकखाद्यम् । ततो मया भणिताः साध्यो 'गृह्णीत' इति । निर्गताः साध्व्यः कान्तीमतो च । अत्रान्तरे वानमन्तरप्रयोगेण चित्रकर्मण एवावतीर्णो मयूरः । गृहीतस्तेन हारः, प्रक्षिप्त उदरे, स्थितश्च निजस्थाने । ततो मया चिन्तितम् - किमेतदाश्चर्यम्, अथवा महत्तरां प्रक्ष्यामि इति । निर्गता वासगृहात्, संक्षुब्धा हृदयेन । आगताः साध्व्यः कान्तिमती च । ततो गता में प्रीति हो गयी। उन्होंने प्रासुकदान देकर सत्कार किया। दोनों आश्रम में आयी। उन दोनों को धर्म का उपदेश दिया, उन्होंने माना। अनन्तर वे दोनों श्राविकाएँ हो गयीं। उन दोनों ने कहा कि आप हम दोनों के घर आने की कृपा करें, जिससे हमारे परिजन भी निवृत्ति को प्राप्त हों । प्रवर्तिनी ने आज्ञा दे दी, मैं जाने लगी । इसी बीच कपट से बाँधा हुआ मेरा दूसरा कर्म उदय में आया। उससे श्रीमती और कान्तिमती को मुझपर असाधारण भक्ति और सम्मान होने के कारण इन दोनों के भवन का वानमन्तर विस्मित हुआ । उसने सोचाइन दोनों का साध्वी के प्रति किस प्रकार चित्त है, यह मैं धन चुराकर देखता हूँ। एक बार मैं उन दोनों के घर गयी और कान्तिमती को शयनागार में पेटी में रखे हार को पिरोते हुए देखा। यह मुझे देखकर उठ गयी, विधिपूर्वक बन्दना की । आसन लायी गयीं। मैं और साध्वियां बैठ गयीं। मैंने धर्मोपदेश दिया । प्रतिश्रय निवास को चल पड़ी । अनन्तर उसने कहा- आयें ! आज आपका भोजन है, अत: यह प्रासुक ( स्वच्छ, जीवजन्तु से रहित ) भोजन ग्रहण कीजिए।' तब मैंने साध्वियों से कहा- 'ग्रहण कर लो।' साध्वियों औ कान्तिमती निकल गयीं। इसी बीच व्यन्तर के प्रयोग से चित्र से ही मोर उतरा। उसने हार ले लिया, उदर में डाला और अपने स्थान पर स्थित हो गया। पश्चात् मैंने सोचा - यह आश्चर्य है अथवा मालकिन से पूछूंगी। मैं निवासगृह से निकली, हृदय क्षुब्ध हो गया । साध्वियाँ आयीं और कान्तिमती आ गयी । अनन्तर हम लोग गये। कान्तिमती शयन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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