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________________ सत्तमो भवो] संखुद्धा हियएणं । आगयाओ साहुणीओ कंतिमई य । तओ गया अम्हे । पविट्ठा कंतिमई वासभवणं । तयणंतरमेव निरूविओ हारो, जाव नत्थि त्ति । तओ तीए चितियं-किमयं वड्डखेड्डु। पुच्छिओ परियणो। तेण भणियं--न याणामो, न य कोइ एत्थ अज्ज मोत्तूण पविट्ठो; ता तयं निरूवेहि । कंतिमईए भणियं-किमेवमसंबद्धं पलवह । समतणमणिमुत्तलेठुकंचणा भयवइ त्ति । अंबाडिओ परियणो, फट्टच लोए। मए वि आगंतूण साहियं पवत्तिणीए । भणियं च णाए-वच्छे, विचित्तो कम्मपरिणामो, नत्थि किंचि वि एयस्स असंभावणिज्जं ति । ता अहिययरं तवचरणसंगयाए होयध्वं । न गंतव्वं च तं सत्थवाहगेहं । न याणामि कस्सवि इयमणिट्ठति। अन्नं च । दुहा वि पवयणलाघवं, रक्खियव्वं च एवं महापयत्तेणं। अरक्खमाणे य जोवे जणेइ एयस्स सरयचंदचंदिमासच्छहस्स मालिन्न, आवाएइ परमपयहेउणो अहम्मबुद्धि, विपरिणामेइ अहिणवधम्मसंगयं जणं, लंघेइ अलंघणिज्जं परमगरुआणं ति। तओ य से जीवे अणेयसत्ताण पडिवज्जिऊण संसारहेउभावं मज्झिऊण कज्जाकज्जेसु पउस्सिऊण गुणाणं बहुमन्निऊणमगुणे संचिऊणमबोहिमूलाइ दोहमद्धं संसारवयम् । प्रविष्टा कान्तिमती वासभवनम् । तदनन्तरमेव निरूपितो हारः, यावद् नास्तीति । ततस्तया चिन्तितम् । किमेतद् महत्कुतूहलम् । पृष्टः परिजनः । तेन भणितम्-न जानीमः, न च कोऽप्यत्र आर्यां मुक्त्वा प्रविष्टः, ततस्तां निरूपय । कान्तिमत्या भणितम्-किमेवमसम्बद्धं प्रलपत, समतृणमणिमुक्तालेष्टुकाञ्चना भगवतीति । तिरस्कृतः परिजनः। प्रसृतं च लोके । मयाप्यागत्य कथितं प्रवतिन्याः । भणितं च तया-वत्से ! विचित्रः कर्मपरिणामः, नास्ति किञ्चिदप्येतस्यासम्भावनीयमिति । ततोऽधिकतरं तपश्चरणसङ्गतया भवितव्यम् । न गन्तव्यं च तत्सार्थवाहगृहम् । न जानामि कस्यापीदमनिष्टमिति । अन्यच्च द्विधापि प्रवचनलाघवम्, रक्षितव्यं चैतन्महाप्रयत्नेन । अरक्षति च जीवे जनयत्येतस्य शरच्चन्द्रचन्द्रिकासच्छायस्य मालिन्यम्, आपादयति परमपदहेतोरधर्मबुद्धिम्, विपरिणामयत्यभिनवधर्मसङ्गतं जनम्, लङ्घयति अलङ्घनीयां परमगुर्वाज्ञामिति । ततश्च स जीवोऽनेकसत्त्वानां प्रतिपद्य संसारहेतुभावं मोहित्वा कार्याकार्ययोः प्रद्विष्य गुणान् बहु मत्वाऽगुणान् सञ्चित्याबोधिमूलानि दीर्घाध्वानं संसारसागरं पयटतीति। एतच्छ् त्वा समुत्पन्ना मे संवेगभावना. गृह में प्रविष्ट हुई। तदनन्तर हार देखा, नहीं था। उसने सोचा-यह कैसा बड़ा कौतूहल है ? सेवक से पूछा। उसने कहा -'नहीं जानते हैं और आर्या को छोड़कर कोई भी यहाँ प्रविष्ट नहीं हुआ अत: उन्हीं को देखो।' कान्तिमती ने कहा-'यह असम्बद्ध बकवास क्यों करते हो? भगवती की दृष्टि तृण, मणि, मोती, ढेला, स्वर्ण, सबमें समान है ।' सेवक का तिरस्कार हुआ। बात लोगों में फैल गयी। मैंने भी आकर प्रवर्तिनी (साध्वियों की अध्यक्ष) से कहा । उसने कहा-'वत्से ! कर्म की परिणति विचित्र है, उसके लिए कुछ भी असम्भव नहीं है । अतः अत्यधिक तप करना होगा और उस व्यापारी के घर नहीं जाना होगा। नहीं जानती हूँ यह किसका अनिष्ट है। फिर, प्रवचनलाघव भी दो प्रकार का होता है, इसकी बड़े प्रयत्न से रक्षा करनी चाहिए । जो जीव इसकी रक्षा नहीं करता यह उसकी शरत्कालीन चन्द्रमा की किरणों को मलिन कर देता है, परमपद के हेतुभूत धर्म में अधर्मबुद्धि ला देता है, मनुष्य को नये धर्म से युक्त बना देता है और अलंघनीय परमगुरु की आज्ञा का उल्लंघन करा देता है। वह जीव अनेक प्राणियों को संसार के कारणरूप भावों को प्राप्त कराकर कार्य-अकार्य के विषय में मोहित कर, गुणों से द्वेष कर, अगुणों को बहुत मानकर, अबोधि के मूल में संचित कर लम्बे मार्गवाले संसारसागर में लपेटता है।' यह सुनकर उदासीन भावना उत्पन्न हुई, गुरु के वचन प्रस्तुत हुए, तपविशेष Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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