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________________ [समराइच्चकहा सायरं परियडइ ति । एवं सोऊण समुप्पन्ना में संवेगभावणा, पत्थुयं गुरुवयणं, अंगीकओ तवविसेसो, परिचत्तं बंधुदेवगिहगमणं । आसंकियं परियणेणं । न संकियाओ सावियाओ। चितियं च णाहिं । उवलद्धं एत्थ किंपि अज्जाए, तेण नागच्छइ 'मा मे संकडं भविस्सइत्ति । जुत्तं च एवं इहलोयनिप्पिवासस्स मुणिजणस्स । अणेयदोसो खु परघरपवेसो। पडिवन्नो य णाए धम्माणुराएण। ता अलं णे एत्थ अणुबंधणं । अम्हे चेव तत्थ गच्छिस्सामो त्ति । चितिऊण संपाडियं समीहियं । अइक्कता कइवि दियहा। परिणया मे भावणा, विसुद्धं चित्तरयणं, नियत्तो अग्गहो, आवडियं परमज्झाणं, वियलिओ कम्मरासी, जायं अपुव्वकरणं, समुप्पन्ना खवगसेढी; उल्लसियं जीववीरिएणं, वढिओ सुहपरिणामो, समुप्पन्नं केवलं । खविज्जमाणे य तन्निबंधणभूए कम्मए अभावेण य निमित्तस्स संजायपच्छायावेण वाणमंतरपओगेण विमुक्को मोरेण हारो। ता एवं जहुत्तनिमित्तस्स कम्मुणो एस विवागो ति। एत्यंत रस्मि विम्हिया परिसा । अहो एद्दहमेत्तस्स वि दुक्कडस्स ईइसो विवागो त्ति चितिऊण प्रस्तुतं गुरुवचनं, अङ्गीकृतो तपोविशेषः, परित्यक्तं बन्धुदेवगृहगमनम् । आशङ्कितं परिजनेन, न शङ्क्तेि श्राविके। चिन्तितं च ताभि:-उपलब्धमत्र किमप्यार्यया, तेन नागच्छति ‘मा मे संकटं भविष्यति' इति । युक्तं चैतदिहलोकनिष्पिपासस्य मुनिजनस्य । अनेक दोषः खलु परगृहप्रवेशः । प्रतिपन्नश्च तथा धर्मानरागेण । ततोऽलमावयोरत्रानुबन्धेन। आवामेव तत्र गमिष्याव इति । चिन्तयित्वा सम्पादितं समीहितम । अतिक्रान्ता: कत्यपि दिवसाः। परिणता मे भावना, विशुद्धं चित्तरत्नम , निवृत्तोऽग्रहः, आपतितं परमध्यानम्, विचलितः कर्मराशिः, जातमपूर्वकरणम् , समुत्पन्ना क्षपकश्रेणिः, उल्लसितं जीववीर्येण, वृद्धः शुभपरिणामः, समुत्पन्नं केवलम् । क्षीयमाणे च तन्निबन्धनभूते कर्मणि अभावेन च निमित्तस्य सजातपश्चात्तापेन वानमन्तरप्रयोगेण विमुक्तो मयरेण हारः । तत एवं यथोक्तनिमित्तस्य कर्मण एष विपाक इति ।। अत्रान्तरे विस्मिता परिषद् । अहो एतावन्मात्रस्यापि दुष्कृतस्य ईदृशो विपाक इति अंगीकार किया, बन्धुदेव का घर छोड़ दिया। सेवक को शंका हुई। किन्तु दोनों श्राविकाओं ने शंका नहीं की। उन्होंने सोचा-कोई आर्या को मिल गया होगा, अत: नहीं आती होंगी। मुझ पर संकट न आ जाय। इस लोक के प्रति पिपासा से रहित मुनिजन के लिए यह युक्त ही है। दूसरे के घर में प्रवेश करना अनेक दोषों वाला है । वह धर्मानुराग से आती थीं । अतः भावी अशुभपरिणामों से हम दोनों बस करें अर्थात् आगे के लिए अशुभपरिणाम रखना व्यर्थ है। 'हम दोनों ही वहाँ जाया करेंगी'-ऐसा सोचकर इष्ट कार्य सम्पन्न किया अर्थात् वे दोनों ही प्रतिश्रय में आने लगीं। कुछ दिन बीत गये। मेरी भावना फलित हुई, चित्तरत्न विशुद्ध हो गया, बुरे ग्रह समाप्त हो गये, उत्कृष्ट ध्यान हुआ, कर्मराशि विचलित हो गयो, अपूर्वकरण हुआ, क्षपकश्रेणी उत्पन्न हुई। आत्मा वीर्य से उल्लसित हुई, शुभपरिणाम बढ़ा, केवलज्ञान उत्पन्न हुआ। उस कारणभूत कर्म के क्षीण होने और निमित्त के अभाव होने पर वानमन्तर को पश्चात्ताप हुआ और उसके प्रयोग से मोर ने हार छोड़ दिया। तो कहे हुए कर्म के निमित्त का यह फल है । इसी बीच सभा विस्मित हुई। 'ओह, इतने से दुष्कृत का ऐसा फल !'- ऐसा सोचक र राजदेव और बन्धुदेव Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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