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सत्तमो भवो ]
पिबंधु देहि | अहो दारुणं महंतं दुक्खमणुभूयं भयवईए । तीए भणियं - सोम्म, केतियमिणं
ति सुण ।
सुरनरनरयतिरिक्खेसु वट्टमाणाणमेत्थ जीवाणं । को संखं पि समत्यो काउं तिवखाण दुक्खाणं ॥ ५६६ ॥ अच्छंतु तिरियनरएसु ताव अइदुस्सहाइ दुक्खाई । मणुयाण वि जाइ हवंति ताण को वच्चए अंतं ।। ५७० ॥ जं होइ जियाण दुहं कलमलभरियम्मि गन्भवासम्मि । एक्कं पिय वच्चs नवरि' तस्स नरएण सारिच्छं ॥ ५७१ ॥ जायाणवि जम्मजरामरणेहि अहिदुयाण किं सोक्खं । पियविरहपरम्भत्थणवमुह महाव सण गहियाणं ॥ ५७ ॥ जं पि सुरयम्मि सोक्खं जायइ जीवस्स जोन्वणत्थत्स । तंपि हु चितिज्जंत दुक्खं चिय केवलं नूणं ॥ ५७३ ।।
चिन्तयित्वा जल्पितं नरेन्द्र बन्धुदेवाभ्याम् । अहो दारुणं महद, दुःखमनुभूतं भगवत्या । तया भणितम् - सौम्य ! कियदिदमिति । शृणु
सुरनरनरकतिर्यक्ष वर्तमानानामत्र जीवानाम् ।
कः संख्यामपि समर्थः कर्तुं तीक्ष्णानां दुःखानाम् ।। ५६६॥ आसतां तिर्यङ नरकेषु तावदतिदुःसहानि दुःखानि । मनुजानामपि यानि भवन्ति तेषां को व्रजत्यन्तम् ।। ५७० ।। यद, भवति जीवानां दुःखं कलमलभृते गर्भवासे । एकमपि च व्रजति नवरं तस्य नरकेण सादृश्यम् ।। ५७१।। जातानामपि जन्मजरामरणैरभिद्रुतानां कि सौख्यम् । प्रियविरहपराभ्यर्थनाप्रमुख महाव्यसनगृहीतानाम् । ५७२ ।। यद्यपि सुरते सौख्यं जायते जीवस्य यौवनस्थस्य । तदपि खलु चिन्त्यमानं दुःखमेव केवलं नूनम् ॥५७३ ॥
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५७३
ने कहा - ओह ! भगवती ने दारुण दुःख का अनुभव किया ।' भगवती ने कहा - 'सौम्य ! यह भला कितना है । सुनो
देव, मनुष्य, नरक और तिर्यंच गतियों में वर्तमान जीवों के तीक्ष्ण दुःखों की गणना भी करने में कौन समर्थ है ? तिर्यंच और नरकगतियों में रहनेवाले जीवों के दुःख अत्यन्त दुःसह हैं। मनुष्यगति में भी जो दुःख होते हैं, उनका कौन अन्त पा सकता है ? अपक्व मल से भरे हुए गर्भवास में जीवों को जो दुःख होता है, एक नरक का दुःख ही उसकी समानता पा सकता है। जन्म, जरा और मरण से आक्रामित तथा इष्टवियोग, अनिष्ट संयोगादि प्रमुख आपत्तियों से जकड़े हुए जन्म लेनेवाले प्राणियों को क्या सुख होता है ? यद्यपि युवावस्था जीव को सम्भोग में सुख उत्पन्न होता है, किन्तु विचार करने पर वह दु:ख ही है ॥ ५६६-५७३ ॥
में
१. नवरं तस्स तं चैव सारिक्खक को तस्स नवरि वच्चइ उवमं तं चेव सारिच्छं - ख ।
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