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________________ १७४ | समराइच्चकहा पामागहियस्स जहा कंडुयणं दुक्खमेव मूढस्स । पडिहाइ सोक्खमतुलं एवं सुरयं' पि विन्नेयं ॥५७४।। वंचिज्जइ एस जणो अचेयणो पमुहमेतरसिएहि । खलसंगएहि व सया विरामविरसेहि भोएहि ॥५७५।। ता उज्झिऊण एए अणवज्ज परमसोक्खसंजणयं । तित्थयरभासियं खलु पडिवज्जह भावओ धम्मं ॥५७६।। एत्यंतरम्मि संविग्गा सभा'। भणियं रायबंधुदेवेहि-भयवइ, एवमेयं जं तए आणत्तं ति । पडिवज्जामो अम्हे गिहासमपरिच्चाएण तित्थयरभासियं धम्म। भयवईए भणियं-अहासुहं देवाणप्पिया, मा पडिबंध करेह । तओ दवावियं रायबंधुदेवेहि आघोसणापुव्वयं महादाणं, काराविया जिणाययणाइसु अट्ठाहिया महिमा, संमाणिओ पणइवग्गो, अहिणंदिया पउरजणवया। दिन्नं हरिसेणजुवरायस्स रज्जं । पवन्ना सयलपहाणपरियणसमेया पुरिसचंदगणिसमीदे समणत्तणं ति। पामागृहीतस्य यथा कण्डूयनं दुःखमेव मूढस्य । प्रतिभाति सौख्यमतुलमेव सुरतमपि विज्ञ यम् ।।५७४।। वञ्च्यते एष जनोऽचेतनः प्रमुखमात्ररसिकैः । खलसङ्गगतैरिव सदा विरामविरसै गैः ।।५७५॥ तत उज्झित्वा एतान् अनवद्यं परमसौख्यसञ्जनकम् । तीर्थकरभाषितं खलु प्रतिपद्यध्वं भावतो धर्मम ॥५७६।। अत्रान्तरे संविग्ना सभा। भणितं राजबन्धुदेवाभ्याम् -- भगवति ! एवमेतद, यत्त्वयाऽऽज्ञप्तमिति । प्रतिपद्याव आवां गृहाश्रमपरित्यागेन तीर्थंकरभाषितं धर्मम् । भगवत्या भणितम्--यथासुखं देवानुप्रियौ ! मा प्रतिबन्धं कुरुतम्। ततो दापितं राजबन्धुदेवाभ्यामाघोषणापूर्वकं महादानम्, कारिता जिनायतनादिष्वष्टाह्निका महिमा, सन्मानितः प्रणयिवर्गः, अभिनन्दिताः पौरजन व्रजाः । दत्तं हरिषेणयुवराजाय राज्यम् । प्रपन्नौ सकलप्रधानपरिजनसमेतौ पुरुषचन्द्रगणिसमीपे श्रमणत्वमिति। जिसे खाज हो गयी है, ऐसे मूढ़ व्यक्ति का उसे खुजलाना दुःख ही है उसी प्रकार सम्भोग में जो अनुपम सुख प्रतीत होता है उसके विषय में भी जानना चाहिए। यह मनुष्य मात्र अचेतन प्रमुख रसों द्वारा ठगा जाता है । जैसे दुष्टों की संगति अन्त में नीरस होती है, उसी प्रकार भोग भी अन्त में नीरस होते हैं। अतः इन्हें छोड़कर निर्दोष, परम सुख के जनक, तीर्थकर भाषित धर्म को ही भाव से प्राप्त करें ॥५७४-५७६॥ इसी बीच सभा भयभीत हो गयी। राजदेव और बन्धुदेव ने कहा- 'भगवति ! जैसी आपने आज्ञा दी वैसा ही है । हम दोनों गृहाश्रम का त्याग कर तीर्थंकर भाषित धर्म को प्राप्त करते हैं ।' भगवती ने कहा -- 'जैसे देवानुप्रियों को सुख लगे। रुकावट मत करो।' तब राजदेव और बन्धुदेव ने घोषणा कराकर महादान दिलाया, जिनायतनों में अष्टाह्निक महोत्सव या, याचकों का सम्मान किया, नगरवासियों का अभिनन्दन किया । हरिषेण युवराज के लिए राज्य दिया। दोनों सभी प्रमुख परिजनों के साथ पुरुषचन्द्र गणि के समीप श्रमण हो गये। १. सुरयम्मि-क। २. सहा-ग । ३. -यपाइएसुख । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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