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________________ सत्तमो भवो] ५७५ अइक्कंतो कोइ कालो। इओ य पउत्ता अहिमरया' विसेणेण सेणस्स । न छलिओ यहि । अन्नया य अत्थमुवगयप्पाए दिणयरम्म पुफिया तत्थ अयालपुरिफणो रायभवणुज्जाणपायवा । दिट्ठा उज्जाणपालेणं । साहिया अमच्चस्स । निरूवाविया जेणं। तहेवोवलद्धा य । पेच्छमाणाण य निरूवयाणं पुणो पयइभावमुवगय त्ति। निवेइयं अमच्चस्स । चितियं च ण-कस्स पुण एए निवेयया। एत्थंतरम्मि समागओ तत्थ अटठंगमहानिमित्तपारओ अम्महंडो नाम सिद्धपुत्तो। सुओ य मंतिणा। सद्दाविऊण पुच्छिओ एगदेसम्मि -भो किरिवागो पुण एस वइयरो ति। तेण भणियं-भो न तए कुप्पियव्वं, सत्थयारवयणं खु एयं। मंतणा भणियं--अज्ज, को कोवो देव्वपरिणईए; ता साहेउ अज्जो। तेण भणियं -भो सुण। रज्जपरिवत्तणविराओ अयालकुसुमुग्गमो, खीणवेलाबलेण य पहूयकालफलओ, थेवकालोवलंभेण य न चिरयालटिई। एस सत्थयाराहिप्पाओ त्ति । मंतिणा भणियं-- अज्ज, एवं ववत्थिए को उण उवाओ। नेमित्तिएण भणियं-अत्थपयाणाइयं संतिकम्म । ता देह दीणाणाहाण दविणजायं, पूएह गुरुदेदए परिच्चयह अहाउयमेव किंचि सावज्ज, अतिक्रान्तः कोऽपि कालः । इतश्च प्रयुक्ता अभिमरका (घातकाः) विषेणेन सेनस्य । न छलितश्च तैः। अन्यदा च अस्तमुपग प्राये ‘दनकरे पुष्पितास्तत्राकालपुष्पिणो राजभवनोद्यानपादपाः । दृष्टा उद्यानपालेन । कथिता अमात्यस्य । निरूपितास्तेन । तथैवोपलब्धाश्च । प्रेक्षमाणानां च निरूपकानां पुनः प्रकृतिभावमुपगता इति । निवेदितममात्यस्य । चिन्तितं च तेन - कस्य पुनरेते निवेदकाः । अत्रान्तरे समागतस्तत्राष्टाङ्गमहानिमित्तपारग आम्रहुण्डो नाम सिद्धपुत्रः । श्रुतश्च मन्त्रिणा । शब्दयित्वा पृष्ट एकदेशे---भोः किविपाकः पुनरेष व्यतिकर इति । तेन भणितम्भो न त्वया कुपितव्यम्, शास्त्रकारवचनं खल्वेतद् । मन्त्रिणा भणितम्- आर्य, क: कोपो दैवपरिणतौ, ततः कथयत्वार्यः । तेन भणितम् - भोः शृणु। राज्यपरिवर्तनविपाकोऽकालकुसुमोद्गमः, क्षीणवेलाबलेन च प्रभूतकालफलदः, स्तोककालोपलम्भेन च न चिरकाल स्थितिः। एष शास्त्रकाराभिप्राय इति । मन्त्रिणा भणितम-आर्य ! एवं व्यवस्थिते कः पुनरुपाय: । नैमित्तिकेन भणितम्अर्थप्रदानादिकं शान्तिकर्म । ततो दत्त दीनानाथेभ्यो द्रविणजातम्, पूजयत गुरुदेवते, परित्यजत ___ कुछ समय बीता। इधर विषेण ने सेन के घातक भेजे। उनसे नहीं छला गया। एक दिन जब सूर्य अस्तप्राय हो गया था तो राजभवन के उद्यान के वृक्षों में असमय में ही फूल लग गये। उद्यानपाल ने देखे । (उसने) मन्त्री से कहा । मन्त्री ने देखा, (पेड़) फूले हुए उपलब्ध हुए । दर्शकों ने जब देखे तो पुन: स्वभाव को प्राप्त हो गये । मन्त्री से निवेदन किया गया, मन्त्री ने सोचा ये किसके निवेदक (सूचक) हैं । इसी बीच वहाँ पर अष्टांग महानिमित का ज्ञाता आम्रहुण्ड नामक सिद्धपुत्र आया। मन्त्री ने सुना। बुलाकर एकान्त में पूछा - 'हे सिद्धपुत्र ! इस घटना का क्या फल है ?' उसने कहा - 'हे मन्त्रिन ! आप कुपित न हों, यह वचन शास्त्र का अनुगामी है।' मन्त्री ने कहा --'भाग्य की परिणति पर क्या कोप करना, अतः आर्य कहें।' उस सिद्धपुत्र ने कहा-'सुनो। असमय में फूलों के उद्गम का फल राज्य परिवर्तन है, अनवसर में शक्तिशाली होने पर बहुत समय तक फलदायी होता है और थोड़े समय के लिए प्राप्ति हो तो चिरकाल तक स्थिति नहीं रहती है - यह शास्त्र का अभिप्राय है।' मन्त्री ने कहा'आर्य ! ऐसी स्थिति में क्या उपाय है ?' नैमित्तिक ने कहा---'धनप्रदान आदि शान्तिकर्म । अतः दीन और अनाथों को धन दो, गुरु और देवताओं की पूजा करो, आयु के अनुसार कुछ पापों को छोड़ो, अधिक गुणस्थानों १. अहिमा रया-क । अहिम रा-ख। २. पालएणं-ख । ३. ममहुडो-के। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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