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________________ नमो भवो ] ८४३ ताओ | अद्वाइओएस नियमहिलियाए नम्मयाभिहाणाए विसप्पओएण । ता पेसेहि ताव तत्थ विसनिग्धायणसमत्थे वेज्जे, जीवइ तओ ओसहपओएण । अन्नं च । तग्गेहपओलिदक्खिणावर दिसाभाए इमिणा चैव विसप्पओएण तोए दरघाइओ कुक्कुरो । तस्स वि इमो चेव ओसहविही परंजियो; जीविस्सइ सो वि इमिणा । राइणा चितियं- अहो नाणाइसओ कुमारस्स । जहाभणियमाइसिऊण पेसिया वेज्जा, भणियं च राइणा - कुमार, किं पुण तीए इमस्स असव्वसायस्स निमित्तं । कुमारेण भणियं - ताय, अविवेओ निमित्तं; तहवि पुण विसेसओ इमं । वल्लहा सा पुंरदरस्स मोहदोसेण पसत्ता अज्जुणाभिहाणे नियदासे । सुयमणेण सवणपरंपराए, न सद्दहियं सिणेहओ | अइक्कतो कोइ कालो । अन्नया य 'मा संताणविणासो हवउ' त्ति साहियं से जीए । पुत्त, न सुंदरा ते महिलिया; ता मा उवेक्खसु ति । चितियं पुरंदरेण न खलु एयमेवं भवइ । अभिन्नचित्ता में पिययमा, अंबाय एवं बाहरई । निबद्धवेराओ य पायं सासुयावहूओ । refoot अंबा, पियमा उण पगरिसो गुणाण । चवलाओ य इत्थियाओ त्ति रिसिवयणं, न य पयत; यद्येवं निर्बन्धः, ततः शृणोतु तातः । अर्धव्यापादित एष निजमहिलया नर्मदाभिधानया विषप्रयोगेण । ततः प्रेषय तावत् तत्र विषनिर्घातनसमर्थान् वैद्यान्, जीवति तत औषधप्रयोगेण । अन्यच्च तद्गेहप्रतोलिदक्षिणा पर दिग्भागेऽनेनैव विषप्रयोगेण तया दरघातित कुर्कुरः । तस्याप्ययमेषविधिः प्रयोक्तव्यः, जीविष्यति सोऽप्यनेन । राज्ञा चिन्तितम् - अहो ज्ञानातिशयः कुमारस्य । यथा भणितमादिश्य प्रेषिता वैद्याः, भणितं च राज्ञा - कुमार ! किं पुनस्तस्या अस्यासद्व्यवसायस्य निमित्तम् । कुमारेण भणितम् - तात ! अविवेको निमित्तम्; तथापि पुनर्वशेषत इदम् । वल्लभा सा पुरन्दरस्य मोहदोषेण प्रसक्ताऽर्जुनाभिधाने निजदासे । श्रुतमनेन श्रवणपरम्परया, श्रद्धितं स्तः । अतिक्रान्तः कोऽपि कालः । अन्यदा च 'मा सन्तानविनाशो भवतु' इति कथितं तस्य जनन्या । पुत्र ! न सुन्दरा ते महिला, ततो मोपेक्षस्वेति । चिन्तितं पुरन्दरेण - खल्वेतदेवं भवति । अभिन्नचित्ता मे प्रियतमा, अम्बा चैवं व्याहरति । निबद्धवैरे च प्रायः श्वश्रूवध्वी । अमत्सरिणी चाम्बा, प्रियतमा पुनः प्रकर्षो गुणानाम्, चपलाश्च स्त्रिय इति ऋषिवचनम्, न चान्यथा कहा हुआ निन्दित प्रायः नहीं फैलता है, अब पुत्र प्रमाण हैं ।' कुमार ने कहा - 'पिता जी, ऐसी आज्ञा मत दो, यदि आग्रह है तो पिताजी सुनिए - अपनी नर्मदा नामक पत्नी के द्वारा विष के प्रयोग से यह अधमरा हुआ है, अतः वहाँ विष को नष्ट करने में समर्थ वैद्यों को भेजिए, औषधि के प्रयोग से यह जीवित हो जायेगा । दूसरी बात यह है कि उसी घर की गली के दक्षिण-पश्चिम भाग में इसी विष के प्रयोग से उस कुत्ते को भी अधमरा कर दिया है उसके लिए भी यही औषधि के नियम का प्रयोग करना चाहिए, वह भी इससे जीवित हो जायेगा। राजा ने सोचा- ओह कुमार के ज्ञान की अधिकता ! कहने के अनुसार आदेश देकर वैद्य भेजे । राजा ने कहा - 'कुमार ! उसके असत्कार्य का क्या कारण है ?' कुमार ने कहा - 'पिताजी ! अविवेक कारण है तथापि विशेषरूप से यह बात है पुरन्दर की प्रिया मोह के दोष से अपने अर्जुन नामक दास के प्रति आसक्त हो गयी। इसने कानों-कान सुना, स्नेहवश विश्वास नहीं किया । कुछ समय बीत गया। एक बार 'सन्तान का विनाश न हो' अतः उसकी माँ ने कहा - 'पुत्र ! तुम्हारी स्त्री ठीक नहीं है अतः उसकी उपेक्षा मत करो।' पुरन्दर ने सोचा'निश्चय से यह ऐसी नहीं होगी । मेरी प्रियतमा अभिन्न हृदयवाली है और माता ऐसा कहती है ! सास-बहू का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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