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[ समराइच्चकहा
मेयं खग्गसेणधूयाण, जमेवं गुरुयणो अणुवत्तीयइ।
एत्थंतरम्मि नाइदूरे पुरंदरभट्टगेहम्मि समद्धाइओ अक्कंदो पवित्थरिओ भरेण । 'हा किमेयं ति' संभंतो राया। भणियं च णेण - अरे वियाणह, किमयं ति। कुमारेण भणियं-ताय, अलं कस्सह गमणखेएण, वियाणियमिणं । राइणा भणियं-वच्छ,, किमयं ति। कुमारेण भणियं - ताय, संसारविलसियं । राइणा भणियं-वच्छ, न विसेसओऽवगच्छामि। कुमारेण भणियं-सुणाउ ताओ। अद्धउवरओ पुरंदरभट्टो त्ति तन्निमित्तं पवत्तो तस्स गेहे अक्कंदो। राइणा भणियं-वच्छ, सो अज्जेव दिट्ठो मए। कुमारेण भणियं-ताय, अकारणमिणं मरणधम्मीणं। राइणा भणियं-वच्छ, न कोइ एयस्स वाही अहेसि; ता कहं पुण एस उवरओ। कुमारेण भणियं-ताय, अवत्तव्वो एस वइयरो गरहिओ एगंतेण । राइणा भणियं--वच्छ, ईइसो एस संसारो, किमेत्थ अगरहियं नाम । महंतं च मे कोउयं ति साहेउ वच्छो। न य एत्थ कोइ असज्जणो। सज्जणकहियं च गरहियं न वित्थरइ पाएण; संपयं वच्छो पमाणं ति । कुमारेण भणियं-ताय, मा एवमाणवेह; जइ एवं निब्बंधो, ता सुणाउ अहो समुदाचार इति । चिन्तयित्वा जल्पितमनया-उचितमेतत् खड्गसेनदुहित्रोः, यदेवं गुरुजनोsनुवर्त्यते। ___अत्रान्तरे नातिदूरे पुरन्दरभट्टगेहे समुद्धावित आक्रन्दः प्रविस्तृतो भरेण । 'हा मिमेतद्' इति सम्भ्रान्तो राजा । भणितं च तेन - अरे विजानीत, किमेतदिति । कुमारेण भणितम्-तात ! अलं कस्यचिद् गमनखेदेन, विज्ञातमिदम् । राज्ञा भणितम् - वत्स ! किमेतदिति । कुमारेण भणितम् - तात ! संसारविलसितम् । राज्ञा भणितम्- वत्स ! न विशेषतोऽवगच्छामि। कुमारेण भणितम्शृणोतु तातः । अझैपरत: पुरन्दरभट्ट इति तन्नि मित्तं प्रवृत्तस्तस्य गेहे आऋन्दः । राज्ञा भणितम्वत्स ! सोऽद्यैव दृष्टो मया । कुमारेण भणितम्-तात ! अकारणमिदं मरणधर्माणाम् । राज्ञा भणितम्-वत्स ! न कोऽप्येतस्य व्याधिरासीत्, ततः कथं पुनरेष उपरतः । कुमारेण भणितम् - तात ! अवक्तव्य एष व्यतिकरो गहित एकान्तेन । राज्ञा भणितम्-वत्स ! ईदश एष संसार:, किमत्रागहितं नाम । महच्च मे कौतुकमिति कथयतु वत्सः । न चात्र कोऽप्यसज्जनः । सज्जनकथितं च गहितं न विस्तीर्यते प्रायेण, साम्प्रतं वत्सः प्रमाणमिति । कुमारण भणितम्-तात ! मैवमाज्ञासम्पन्न हो गया। माताजी ! उद्वेग छोड़िए।' अनन्तर महारानी ने सोचा-ओह, इन दोनों का रूप, ओह उपशम, ओह यथार्थ वस्तु का जानना, ओह वचनों की रचना, ओह बड़ों के प्रति भक्ति, ओह महार्घता, ओह गम्भीरता, ओह उचित व्यवहार-ऐसा सोचकर इसने (महारानी ने कहा-खड्गसेन की पुत्रियों के यह योग्य है जो कि इस प्रकार बड़ों का अनुसरण करती हैं।
तभी समीप में ही पुरन्दर भट्ट के घर से रोने की आवाज आयी, भीड़ इकट्ठी हो गयी । 'हाय यह क्या !' राजा घबराया और उसने कहा-'अरे ज्ञात करो क्या हुआ ?' कुमार ने कहा- 'कोई ज्ञात करने का कष्ट मत करो, इसे ज्ञात कर लिया।' राजा ने वहा-'वत्स ! यह (सब) क्या है ?' कुमार ने कहा- 'पिता जी ! संसार का खेल है यह।' राजा ने कहा- 'वत्स ! ठीक से नहीं समझा।' कुमार ने कहा-'पिताजी सुनिए, पुरन्दर भट्ट मरणासन्न है अतः उसके लिए उसके घर में रुदन हो रहा है ।' राजा ने कहा- 'वत्स ! उसे आज ही मैंने देखा था।' कुमार ने कहा-'मरण स्वभाववालो के लिए यह कोई कारण नहीं है।' राजा ने कहा'वत्स ! इसे कोई रोग भी नहीं था, अत: यह कैसे मरणासन्न हो गया !' कुमार ने कहा- 'पिता जी ! यह घटना अत्यन्त निन्दित होने के कारण न कहने योग्य है।' राजा ने कहा---'पुत्र ! यह संसार ऐसा ही है, यहां पर अनिन्दित क्या है। मुझे बड़ा कौतूहल है, अतः पुत्र कहो । यहाँ कोई असज्जन नहीं है और सज्जनों के द्वारा
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