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________________ नवमो भवो ] चेट्ठियं महया पयत्तेण निव्वडियभावसारं पयट्टति अत्यविसएसु, न पयट्टति जराइदोसनिग्धायणसमत्ये हिए सव्वजीवाण अचितचिंतामणिसन्निहे साहए नेव्वाणस्स वीयरागदेसिए धम्मेति । एय मायणिऊण संजायसुहयरपरिणामेण जंपियं राइणा-वच्छ, एवमेयं, न एत्थ किचि अन्नह त्ति । देवीए भणियं वच्छ, सव्वमेवमयं मोहनिद्दाविगमेण परिणयप्पायमम्हाणं । किं तु न संपन्नं बालाण अलिसि ति विग्गा विय म्हि । कुमारेण भणियं -अंब, अलमुब्वेएण; संपन्नपायमेयासि अहिलसियं । धन्नाओ इमाओ, सफलं माणुसत्तणमेयाणं, संगयाओ मोक्खबीएण । तओ देवीए पुलोइयं तासि वयणं । पणमिऊण गुरुवणं जंपियमिमोहिं - अंब, नेहमेतनिमित्तो खु उच्देवो अंबाए । अन्ना जहा उवइमज्जउत्तेण तव एयं सफलं माणुसत्तमम्हाण, पाविओ अज्जउत्तघरिणिसद्दो गुरुयणाणहावेण तरूवं च सेसं पि । ता संपन्नमम्हाण अहिलसियाहियं ति, परिच्चयउ उब्वेवमंबा । तओ देवीए चितियं-- अहो एयासि रूवं, अहो उवसमो, अहो परमत्थन्नुया, अहो वयणविन्नासो, अहो गुरुभक्ती, अहो महत्यत्तणं, अहो गंभीरया, अहो समुयायारोति । चितिऊण जंपियमिमीए - उचिय कृत्वा गजनिमीलिकां परित्यज्य सर्वमन्यत् कुशलपक्षचेष्टितं महता प्रयत्नेन निष्पन्नभावसारं प्रवर्तन्तेऽविषयेषु न प्रवर्तन्ते जरादिदोषनिर्घातनसमर्थे हिते सर्वजीवानां अचिन्त्यचिन्तामणिसन्निभे साधके निर्वाणस्य वीतरागदेशिते धर्मे इति । एतदाकर्ण्य सञ्जातशुभतर परिणामेन जल्पितं राज्ञा - वत्स ! एवमेतद्, नात्र किञ्चिदन्यथेति । देव्या भणितम् - वत्स ! सर्वमेवमेतद् मोहनिद्राविगमेन परिणतप्रायमस्माकम् । किन्तु न सम्पन्नं बाल योरभिलषितमित्युद्विग्नेवास्मि । कुमारेण भणितम् -- अम्ब ! अलमुद्व ेगेन, सम्पन्नप्रायमेतयोरभिलषितम् । धन्ये इमे सफलं मानुषत्वमेतयोः, सङ्गते मोक्षबीजेन । ततो देव्या प्रलोकित तयोर्वदनम् । प्रणम्य गुरुजनं जल्पितमाभ्याम् - अम्ब ! स्नेहमात्रमिनित्तः खल्वुद्वेगोऽम्बायाः । अन्यथा यथोपदिष्टमार्यपुत्रेण तथैवंतत्, सफलं मानुषत्वप्राप्त आर्यपुत्रगृहिणीशब्दो गुरुजनानुभावेन तदनुरूपं च शेषमपि । ततः सम्पन्न मावयोरभिलषिताधिकमिति, परित्यजतद्वेगमम्बा । ततो देव्या चिन्तितम् - अहो एतयो रूपम्, कहो उपशमः, अहो परमार्थज्ञता, अहो वचनविन्यासः, अहो गुरुभक्तिः, अहो महार्थत्वम्, अहो गम्भीरता, ८४१ है, धीरों के द्वारा अचिन्तनीय है, भावी फल का दूसरा उपाय है अथवा यह मोह के निश्चय द्वारा साध्य है. अथवा तिरस्कार का उपाय है, अथवा पदार्थ तथा विषय अविनाशी है - इस प्रकार बुढ़ापे आदि दोषों कोन मानकर सभी अवस्थाओं में मूर्ख व्यक्ति गजनिमीलन कर ( आँखें मूंदकर ), अन्य सब शुभपक्ष वाली चेष्टाओं का त्याग कर, अत्यधिक प्रयत्न से जिन्हें पदार्थों में रस उत्पन्न हुआ है ऐसे होकर वे पदार्थ और विषयों में प्रवृत्त होते हैं। बुढ़ापा आदि दोषों के नाश करने में समर्थ, समस्त जीवों के लिए हितकर, अचिन्त्य चिन्तामणि के समान वीतराग प्रणीत मोक्ष के धर्म में प्रवृत्त नहीं होते हैं ।' यह सुनकर जिसके अत्यधिक शुभ परिणाम उत्पन्न हुए हैं ऐसे राजा ने कहा - 'पुत्र ! यह इसी प्रकार है, अन्य किसी प्रकार नहीं ।' महारानी ने कहा -- 'यह सब ऐसा ही है, मोहरूपी निद्रा के नष्ट हो जाने के कारण हम लोग बदल गये ( जाग्रत हो गये ). किन्तु बालिकाओं की अभिलाषा पूर्ण नहीं हुई, अतः मैं उद्विग्न ही हूँ ।' कुमार ने कहा- माताजी! उद्वेग मत जए, इन दोनों की अभिलाषा सम्पन्न प्राय है। ये दोनों धन्य हैं, इन दोनों का मनुष्यमव सफल है, ये दोनों मोक्ष के बीज से युक्त हैं।' अनन्तर महारानी ने उनका मुख देखा। माता-पिता ( सास, श्वसुर ) को प्रणाम कर इन दोनों ने कहा - ' माता ! निश्चित रूप से माता का उद्वेग मात्र स्नेह से निर्मित है, अन्यथा फिर आर्यपुत्र ने जो उपदेश दिया वह वैसा ही है। हम दोनों का मनुष्यभव सफल हुआ, गुरुजनों की कृपा से आर्यपुत्र की गृहिणी शब्द को प्राप्त किया और उसके अनुरूप शेष को भी प्राप्त किया । अतः हम लोगों की अभिलाषा से अधिक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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