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________________ [ समराइच्चकहा पयारंतरेण अविभाविज्जमाणसरूवे विओजए इट्ठभावाण समापडणसंगए कारए असमंजसाण किलेसायासकारगा अत्यविसया विसविवायसरिसा य; विसयचासो य अव्वावाहो पयईए कारणं अमयभावस्स सलाहणिज्जो स्याण अकिलेस सेवणिज्जो से विज्जइति किमेत्थ दुक्करं । कहं वा एवंविहे जीवलोएन दुक्करं अत्थविसयाणुवत्तणं ति । राइणा भणियं वच्छ, एवमेयं, जया सम्मालोइज्जइ । कुमारेण भणियं - ताय, असम्मालोचणं पुण न होइ आलोचणं । राइणा भणियं -- वच्छ, एवमेयं, कि तु दुरंतो महामोहोति । कुमारेण भणियं - ताय, ईइसो एस दुरंतो, जेण एयसामत्थेण पाणिणो एवंविहे जीवलोए पहवंते वि उद्दाममच्चुंमि पेच्छमाणा वि एयसामत्थं गोयरगया वि एयस्स घेप्पमाणा वि जराए विउज्जमाणा वि इट्ठेहिं परिगलंते वि वीरिए चोइज्जमाणा वि धीरेहिं 'न अम्हाण वि एवमेयं परिणम, अन्नो व अम्ह चितओ, जं किंचि वा एयं, अचितणीयं च धीराणं, अत्थि वा आयत्तमुवायंतरं, मोहववसायसज्झं वा इमं, अवहीरणा वा उवाओ, अच्वंतिया वा अत्यविसय 'त्ति अगणिऊण जराइदोस जालं सव्वावत्थासु बाला काऊण गयनिमोलियं परिचय सव्वमन्नं कुसलपक- ख ८४० स्यातिभीषणं प्रकृत्या दुर्जये प्रकारान्तरेणाविभाव्यमानस्वरूपे वियोजके इष्टभावानां सदापतनसङ्गते कारकेऽसमञ्जसानां क्लेशायासकारको अर्थ विषयौ विषविपाकसदृशौ च विषयत्यागश्चाव्याबाधः प्रकृत्या कारणममृत भावस्य श्लाघनीयः सतामक्लेश सेवनीयः सेव्यते इति किमत दुष्करम् कथ वैवंविध जोवलोके न दुष्करमर्थ विषयानुवर्तनमिति । राज्ञा भणितम् - वत्स ! एवमेतद् यद सम्यगालोच्यते । कुमारेण भणितम् - तात ! असम्यगालोचनं पुनर्न भवत्यालोचनम् । राज्ञा भणितम् - वत्स ! एवमेतत्, किन्तु दुरन्तो महामोह इति । कुमारेण भणितम् - तात ! ईदृश एष दुरन्तः, येनैतत्सामर्थ्यन प्राणिन एवंविधे जीवलोके प्रभवत्यपि उद्दाममृत्यो प्रेक्षमाणा अपि एतत्सामर्थ्यं गोचरगता अध्येतस्य गृह्यमाणा अपि जरया वियुज्यमाना अपीष्टः परिगलत्यपि वीर्ये चोद्यमाना अपि धीरैः 'नास्माकमप्येवमेतत् परिणमति, अन्यो वाऽस्माकं चिन्तकः यत् विचिद् वैतद्, अचिन्तनीयं च धीर णाम् अस्ति वाऽऽयत्तमुपायान्तरम्, भो, व्यवसायसाध्यं वेदम्, अवधीवोपायः, आत्यन्तिका वाऽर्थविषयाः' इत्यगणयित्वा जरादिदोषजाल सर्वावस्थासु बालाः प्रवृत्त नहीं होते हैं वे ही ठीक हैं, यहाँ कठिन कार्य ही क्या है' कुमार ने कहा - पिताजी ! यदि ऐसा है तो तीनों लोकों के लिए अत्यन्त भयंकर, मारक मृत्युरूपी पर्वत के गिरने पर स्वभाव से दुर्जेय, दूसरे प्रकार से जिनके स्वरूप प्रकट होते हैं, जो इष्ट भावों के वियोजक हैं, सदा पतन से युक्त हैं, असगत कार्यों के करनेवाले हैं, क्लेश और थकावट को उत्पन्न करते हैं ऐसे पदार्थ और विषय विषफल के समान हैं और विषयों का त्याग रुकावट न डालनेवाला, स्वभाव से अमृतत्व का कारण, सज्जनों की प्रशंसा के योग्य है और बिना क्लेश के सेवन किया जाता है अतः यहाँ कठिन कार्य क्या है ? अथवा संसार में पदार्थ और विषयों का अनुसरण दुष्कर कैसे नहीं है ? राजा ने कहा- 'वत्स ! यह सच है, जब भलीभाँति विचार किया जाता है ।' कुमार ने कहा - 'पिताजी ! भली प्रकार विचार न करना विचार नहीं होता है।' राजा ने कहा- 'यह ठीक है; किन्तु महामोह का अन्त कठिनाई से होता है ।' कुमार ने कहा- 'पिताजी ! यह दुरन्त ऐसा है कि इसके सामर्थ्यं से प्राणी इस प्रकार के संसार में उत्कट मृत्यु के सामर्थ्ययुक्त होने पर भी, इसकी सामर्थ्य को देखते हुए भी, बुढ़ापे से जकड़ जाने, इष्टों से वियोग होने, शक्ति के नष्ट होने, धीर व्यक्तियों के द्वारा प्रेरित होने पर भी 'हमारी यह इस प्रकार की परिणति नहीं है, अथवा हम लोगों की चिन्ता करनेवाला अन्य है. यह जो कुछ भी भी, इसके मार्ग पर जाते हुए Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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