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________________ नवमो भवो] ८३६ भावेंति तयसारयं, ते वि जहासन्नयाए अवटुभति एएण; तहा अवटुद्धा य न पावेंति पुणो पुणो एवमेवावट्टहणं ति, अवि य मुच्चंति कालेण इमाओ उवद्दवाओ। तओ एगेहि चितियं-किमम्हाणमिमीए दोहचिताए । सव्वहा पयट्टम्ह अस्थविसएसु, जं होउ तं होउ त्ति। संपहारिऊण पयट्टा सहरिसं । अन्ने 'उ हा हा एवं परिपंथिए एयम्मि नियमनस्सरेहि असुंदरेहिं विवाए किमेत्थ अत्यविसएहिति चितिऊण नियत्ता अत्थविसयाहिं, भाति तयसारयं, जुज्जति नियनियफलेहि। ता एवं ववस्थिए निरूवेउ ताओ के एत्थ दक्करकारया के वा नहि। राणा चितियं-जे पयटॅति अत्यविसएसु,ते दुक्करकारया;जओ तहा परिपंथिए पव्वए नियमणस्सरेहि असुंदरेहि विवाए किमत्थविसएहि; कीइसी वा तहाभए पवत्ती ? अणालोचयत्तमेगंतेण; किं वा तीए तहादिट्ठपज्जताए उवहासटाणयाए अत्थविसयपत्थणाए ? परमत्येण निव्वेयकारणमेयं सयाणं ति। चितिऊण जंपियं राइणा- कुमार, जे पयति , ते दुवकरकारया; अपवत्तणं तु जुत्तिजुत्तमेव, किमेत्य दुक्करं ति । कुमारेण भणियं - ताय, जइ एवं, ता पडते मच्चपदवए वावायए तिहुयणस्स अइभीसणे पयईए दुज्जए अर्थ विषयेषु भावयन्ति तदसारताम्, तेऽपि यथासन्नतयाऽवष्टभ्यन्ते एतेन, तथाऽवष्टब्धाश्च न प्राप्नुवन्ति पुनः पुनरेवमेवावष्टम्भनमिति, अपि च मुच्यन्ते कालेनास्मादुपद्रवात् । तत एकैश्चिन्तितम् -किमस्माकमनया दीर्घचिन्तया। सर्वथा प्रवर्तामहेऽर्थविषयेषु, यद् भवतु तद् भवत्विति । सम्प्रधार्य प्रवृत्ताः सहर्षम् । अन्ये तु हा हा एवं परिपन्थिनि एतस्मिन् नियमनश्वरैरसुन्दरैविपाके किमत्र अर्थविषयः' इति चिन्तयित्वा निवृत्ता अर्थविषयाभ्याम्, भावयन्ति तदसारताम, युज्यन्ते निजनिजफलैः। तत एवं व्यवस्थिते निरूपयतु तातः, केऽत्र दुष्करकारका: के वा नहि। राज्ञा चिन्तितम-ये प्रवर्ततन्तेऽर्थविषयेषु ते दुष्करकारकाः, यतस्तथा परिपन्थिनि पर्वते नियमनश्वरैरसन्दरैविपाके किमर्थविषयः, कीदृशी वा तथाभये प्रवृत्तिः। अनालोचकत्वमेकान्तेन, किं वा तया तथादृष्टपर्यन्तया उपहासस्थानयाऽर्थविषयप्रार्थनया, परमार्थेन निर्वेदकारणमेतत् सतामिति । चिन्तयित्वा जल्पितं राज्ञा-कुमार ! ये प्रवर्तन्ते ते दुष्करकारकाः, अप्रवर्तनं तु युक्तियुक्त मेव, किमत दष्करमिति । कमारेण भणितम-तात ! यद्येवं ततः पतति मत्यूपर्वते व्यापादके त्रिभुवनको प्राप्त करते हैं । जो पदार्थ और विषयों के इच्छुक नहीं हैं और उसकी असारता की भावना करते हैं वे भी समीपवर्ती होने से इससे आक्रान्त हो जाते हैं, उस तरह मून्छित हुए वे पुन: इस प्रकार आक्रान्तपने को नहीं प्राप्त होते हैं, अपितु समय पाकर इस उपद्रव से छूट जाते हैं। अनन्तर कुछ लोगों ने सोचा- हम लोगों को इस दीर्घ चिन्ता से क्या, (हम तो) सर्वथा पदार्थ और विषयों में प्रवृत्ति करते हैं, जो हो सो हो- ऐसा निश्चय कर हर्षपूर्वक प्रवृत्त हो गये। दूसरे जन-हा हा, निश्चय से नाश होनेवाले, असुन्दर फलवाले तथा विरोधी इन पदार्थों के विषयों से क्या ऐसा सोचकर पदार्थों के विषयों से निवत्त हो गये, असारता की भावना करने लगे। अपने-अपने फलों को प्राप्त किया। तो ऐसी स्थिति में पिताजी देखिए, कौन यहाँ कठिन कार्य करनेवाले हैं और कौन नहीं हैं ?' राजा ने सोचा--जो पदार्थ और विषयों में प्रवृत्ति करते है वे कठिन कार्य करनेवाले हैं; क्योंकि उस विरोधी पर्वत के होने पर निश्चित रूप मे नाश होनेवाले पदार्थ और विषयों से क्या, उस प्रकार का भय होने पर प्रवृत्ति कैसी ? अत्यन्तरूप से निर्विचारणा है अथवा उस प्रकार की अदृष्ट पर्यन्त उपहास के स्थानवाली पदार्थों और विषयों की प्रार्थना से क्या लाभ, जो कि सज्जनों के लिए यथार्थरूप से वैराग्य का कारण है - ऐसा सोचकर राजा ने कहा-'कुमार ! जो प्रवृत्त होते हैं वे कठिन कार्य करनेवाले हैं, और जो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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