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________________ [ समराइच्च कहा अहो ममोवरि सुहित्तणं' ति पवड्ढमाणसुहपरिणामस्स तयावरणकम्मखओवसमओ वड्ढमाणयं समुपपन्नमोहिनाण कुमारस्स । पविक्खिओ तीयाइभावो । संविग्गो अइसएण । सुओ एस वइयरो आनंदपडिहाराओ राइणा देवीए य। विसण्णो राया । भणियं च णेण - हा हा अजुत्तमनुचिट्ठियं कुमारेण । देवीए भणियं -हा जाय, परिचत्तं भवसुहं । एत्थंतरम्मि गहियखग्गरयणा दिप्पमाणेण मउडेणं कुंडलालयविहूसियमुही एक्कावलोविरासिरोहरा हारलयासंगएणं थणजुएणं मणिकडयजुत्तबाहुलया रोमावलीसणाहेणं मज्झेण रसणादामसंग नियंबा परिहिएणं देवद्वसेणं मणिनेउरसणाहचलया चच्चिया हरियंदणेण सुरतरुकुसुमधारिणी महा आभोएण परिहवंती मणिपदीवे अच्चंतसोमदंसणा समागया तत्थ देवया । 'अहो किमेयमच्छरीयं' ति विम्हियमणेहिं हरिसविसायगब्भिणं पणमिया एएहिं । मणियं च णाए - महाराय, अलमलं विसाएण । जुत्तमणुचिट्ठियं कुमारेण । परिचत्तं विसं, गहियममयं उज्झिया किलोवया, पयडियं पोरुसं अवहत्थिया खुद्दया, अंगीकयमुयारत्तं; छिन्नो भवो, संधिओ मोक्खो ति । ता कयत्थो इति प्रवर्धमानशुभपरणामस्य तदावरण कर्मक्षयोपशमता वर्धमानकं समुत्पन्नमवधिज्ञान कुमारस्य । प्रवीक्षितोऽतीतादिभावः । संविग्नोऽतिशयेन । श्रुत एष व्यतिकर आनन्दप्रतीहाराद् राज्ञा देव्या च । विषण्णो राजा । भणितं च तेन - हा हा अयुक्तमनुष्ठितं कमारेण । देव्या भणितम् -- हा जात ! परित्यक्तं भवसुखम् । ८३६ अत्रान्तरे गृहीतखड्गरत्ना दीप्यमानेन मुकुटेन कुण्डलालकविभूषितमुखी एकावलीविराजितशिरोधरा हारलतासङ्गतेन स्तनयुगेन मणिकटकयुक्तबाहुलता रोमावलिसनाथेन मध्येन रसनादामसंगनितम्बा परिहितेन देवदूष्येन मणिनुपुरसनाथचरणा चर्चिता हरिचन्दनेन सुरतरुकुसुमधारिणी महताऽऽभोगेन परिभवन्ती मणिप्रदीपान् अत्यन्तसौम्यदर्शना समागता तत्र देवता । 'अहो किमेतदाश्चर्यम्' इति विस्मितमनोभ्यां हर्षविषादगभितं प्रणता एताभ्याम् । भणितं च तयामहाराज ! अलमलं विष देन । युक्तमनुष्ठितं कुमारेण । परित्यक्तं विषम्, गृहीतममृतम्, उज्झिता क्लीवता, प्रकटितं पौरुषम्, अपहस्तिता क्षुद्रता, अङ्गीकृतमुदारत्वम्, छिन्नो भवः, सन्धितो मोक्ष दोनों की धन्यता, ओह मेरे ऊपर सुहृद्भाव' इस प्रकार बढ़े हुए शुभ परिणामों वाले कुमार के अवधिज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से निरन्तर बढ़नेवाला अवधिज्ञान उत्पन्न हो गया । अतीतादि भावों को देखा । अत्यधिक उद्विग्न हुआ। यह घटना आनन्द प्रतीहार से राजा और महारानी ने सुनी। राजा खिन्न हुआ, उसने कहा'हाय ! कुमार ने अयुक्त कार्य किया ।' महारानी ने वहा - 'हाय पुत्र ! सांसारिक सुख त्याग दिया !' इसी बीच वहाँ देवी आयी। वह हाथ में खड्गरत्न लिये हुए थी । उसका मुकुट चमक रहा था । कुण्डल और केशों से उसका मुख विभूषित था। उसकी गर्दन में एक लड़ीवाला हार शोभित हो रहा था । उसके दोनों स्तन हाररूप लता से युक्त थे । उसकी भुजारूपी लताएँ मणिनिर्मित या मणिखचित कड़े से युक्त थीं । ( उसका ) मध्यभाग (कमर का भाग) रोमों की पंक्ति से युक्त था । ( उसके ) नितम्ब करधनी से युक्त थे | देववस्त्र को वह पहिने हुए थी। उसके दोनों चरण मंगियुक्त (मणिनिर्मित) नूपुरों से युक्त थे। हरिचन्दन का शरीर में लेप किये हुए थी । कल्पवृक्ष का फूल धारण किये हुए थी। बड़े आकार से मणिनिर्मित दीपकों को तिरस्कृत कर रही थी (तथा) देखने में अत्यन्त सौम्य थी। 'ओह यह क्या आश्चर्य है - इस प्रकार विस्मित मनवाले, हर्ष और विषाद से भरे हुए इन दोनों ने प्रणाम किया। उस देवी ने कहा- 'महाराज ! विषाद मत करो, कुमार ने ठीक किया, विष का त्याग कर दिया, अमृत को ग्रहण कर लिया, नपुंसकता छोड़ दी, पुरुषार्थं प्रकट कर दिया, छुद्रता को गले में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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