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________________ नवमी भवो ] विसया मोहजणिया मोहहेयवो मोहसरूवा मोहाणुबंधा; संकिलेसजणिया संकिलेस हेयवो संकिलेसरूवा संकिसानुबंध त्ति परिच्चयह जावज्जीव, छड्डेह मोहचेट्टियाइ, अंगीकरेह पसमं, भावेह कुसल बुद्धि, freवेह भववियारे, आलोचेह चित्तेण, संतप्पेह गुरूणं, उज्जमेह धम्मेति । एयमायणिऊण विसुद्ध - यरपरिणामाहिं निम्बडियभावसारं जंपियमिमी हि-जं अज्जउत्तो आणवेइ। परिचत्ता जावज्जीव- मेव अम्हेहि अज्जउत्त तुम्हाणुमईए विसया, सेसे उ सत्ती पमाणं । एयमायणिऊण हरिसिओ कुमारो | चितियं च णेण - अहो एयासि धन्नया, अहो सुधीरत्तणं, अहो निरवेक्खया इहलोयं पर, अहो समुयायारो, अहो हलुयकम्मया, अहो उवसमो, अहो परमत्यन्नुया, अहो वयणविन्नासो, अहो महत्त्तणं अहो गंभीरयति । चितिऊण जंपियमणेण - साहु भोईओ साहु, कयत्था खु तुम्भे अणुमयं ममेयं तुम्भकुसलाण्ट्ठाणं । परिचत्ता भए वि जावज्जीवं विसया, अगीकयं बम्भचेरं । 'अहो सोहणं अहो सोहणं ति जंपियं असोयाईहिं । वढिओ कुसलपरिणामो । अहासन्निहिय aure निओएण निर्वाडिया कुसुमवट्टी | आनंदिया सव्वे । एत्थंतरम्मि 'अहो धन्नया एयासि बुद्धिरिति । तत इदमत्रयुक्तम् । एते खलु विषया मोहजनिता मोहहेतवा मोहस्वरूपा मोहानुबन्धाः संक्लेश जनिताः संक्लेशहेतवः संक्लेशस्वरूपाः संक्लेशानुबन्धा इति परित्यजतं यावज्जीवम्, मुञ्चतं मोहचेष्टितानि, अङ्गीकुरुतं प्रशमम् भावयतं कुशलबुद्धिम्, निरूपयतं भवविकारान्, आलोचयतं चित्तेन, सन्तर्पतयतं गुरून्, उद्यच्छतं धर्मे इति । एतदाकर्ण्य विशुद्धतरपरिणामाभ्यां निर्वृत्तभावसार जल्पितमाभ्याम् - यदार्यपुत्र आज्ञापयति । परित्यक्ता यावज्जीवमेवावाभ्यां आर्यपुत्र ! युष्माक मनुमत्या विषयाः शेषे तु शक्ति: प्रमाणम् । एतदाकण्यं हृषितः कुमारः । चिन्तितं च तेन - अहो एतयोर्धन्यता, अहो सुधीरत्वम्, अहो निरपेक्षतेहलोकं प्रति, अहो समुदाचारः, अहो लघुकर्मता, अहो उपशमः, अहो परमार्थज्ञता, अहो वचनविन्यासः, अहो महार्थत्वम्, अहो गम्भीरतेति चिन्तयित्वा जल्पितमनेन - साधु भवत्यो ! साधु, कृतार्थ खलु युवाम्, अनुमतं ममंतद् युवयोः कुशलानुष्ठानम् । परित्यक्ता मयाऽपि यावज्जीवं विषयाः, अङ्गीकृतं ब्रह्मचर्यम् । अहो 'शोभन महो शोभनम्' इति जल्पितमशोकादिभिः । वर्धितः कुशल परिणामः । यथासन्निहितदेवताया नियोगेन निपतिता कुसुमवृष्टिः । आनन्दिताः सर्वे । अत्रान्तरे 'अहो धन्यर्ततयोः, अहो ममोपरि सुहृत्त्वम्' श्रेष्ठ मनुष्यत्व प्राप्त किया, जिससे इस प्रकार की शुभ बुद्धि है । तो यहाँ यह युक्त है - ये विषय निश्चित रूप से मोह से उत्पन्न हैं, मोह के कारण हैं, मोह स्वरूपी हैं, मोह के परिणाम हैं, संक्लेश से उत्पन्न हैं, संक्लेश के कारण हैं, संक्लेश स्वरूप हैं, संक्लेश के परिणाम हैं, अतः जीवन भर के लिए छोड़ो, मोह की चेष्टा छोड़ो, शान्ति अंगीकार करो, शुभ बुद्धि की भावना करो, भवविकारों को देखो, मन में विचार करो । गुरुओं को सन्तृप्त करो, धर्म में प्रयत्न करो ।' यह सुनकर विशुद्ध परिणामवाली, जिनका पदार्थों के विषय में रस छूट गया है, ऐसी उन दोनों ने कहा- 'जो आर्यपुत्र आज्ञा दें। आपकी अनुमति से हम ने जीवन भर के लिए विषय छोड़ दिये, शेष को शक्ति प्रमाण छोड़ेंगे।' यह सुनकर कुमार हर्षित हुआ, उसने सोचा- 'ओह इन दोनों की धन्यता, सुधीरता, इस लोक के प्रति निरपेक्षता, ओह उचित व्यवहार, ओह लघुकर्मता, ओह उपशम, ओह परमार्थ का ज्ञानपना, ओह वचन-विन्यास, ओह महार्थता, ओह गम्भीरता' ऐसा सोचकर इसने कहा- 'तुम दोनों अच्छी हो, ठीक हो, निश्चित रूप से कृतार्थ हो । तुम दोनों के लिए शुभ कार्य की मैंने अनुमति दी । मैंने भी जीवनभर के लिए विषय छोड़ दिया, ब्रह्मचर्य अंगीकार कर लिया । 'ओह ठीक है, ठीक है' ऐसा अशोक आदि (मित्रों) ने कहा । शुभ परिणाम बढ़ा | समीप में विद्यमान देवी के कारण फूलों की वर्षा हुई, सभी लोग आनन्दित हुए। तभी 'ओह इन Jain Education International ८३५ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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