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[ समराइच्चकहा
दुल्लहं भवसमुद्दे पाहणं नेव्वाणस्स न निउंजेंति धम्मेत्ति; अओ न निहालेंति नियभावं । तहा भुवणडामरो मच्चू अइकूरो पयईए, गोयरे तस्स एयाओ न चितयंति अत्तयं ति; अओन पेच्छति सपरतंतयं । तहाऽसुंदरं विसयविसं अइमोहणं जीवाणं हेऊ गन्भनिरयस्स, निउंजंति मं तत्थ त्ति; अओ म चिति मज्झायई । ता एवं ववस्थिए अहियपवत्तणेण भण कहं एयासि परमत्थओ ममोवरि अणुराओ ति । एयमाय णिऊण संविग्गाओ बहूओ, जाया विसुद्धभावणा, खविओ कम्मरासी पाविधं देसचरणं । तओ सद्धाइसएण सबहुमाणं पणमिऊण कुमारचलणजुयलं जंवियमिमीहि । उज्जउत्त, एवमेयं, न एत्थ किंचि अन्नारिसं । विग्भमवईए भणियं - अज्जउत्त, मम उण इमं सोऊण अवगer विय मोहो, समुप्पन्नमिव सम्मं नाणं, नियत्तो विय विसयराओ, संजायमिव भवभयं ति । कामलयाए भणियं - -अज्जउत्त, ममावि सव्वमेयं तुल्लं । ता एवं ववत्थिए अंगीकयजणोचियं सरिसं नियाणुरायस्स आणवेउ अज्जउत्तो, जमम्हेहि कायव्वं ति । कुमारेण भणियं - साहु भोईओ साहु, उचिओ विवेओ, सुलद्धं तुम्हाण मणुयत्तं, जेण ईइसी कुसल बुद्धि त्ति । ता इमं एत्थ जुत्तं । एए खु
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तथा सर्वोत्तमं मानुषत्वं दुर्लभं भवसमुद्रे प्रसाधनं निर्वाणस्य न नियोजयतो धर्मे इति, अतो न निभालयतो निजभावम् । तथा भुवनडमरो ( - भयङ्करो ) मृत्युरतिक्रूरः प्रकृत्या, गोचरे तस्यैते न चिन्तयत आत्मानमिति, अतो न पश्यति स्वपरतन्त्रताम् । तथाऽसुन्दरं विषयविषमतिमोहनं जीवानां हेतुर्गर्भ निरयस्य, नियोजयतो मां तत्रेति, अतो न चिन्तयतो ममायतिम् । तत एवं व्यवस्थिते अहितप्रवर्तनेन भण कथमेतयोः परमार्थतो ममोपर्यंनुराग इति । एतदाकर्ण्य संविग्ने वध्वी, जाता विशुद्धभावना, क्षपितः कर्मराशिः, प्राप्तं देशचरणम् । ततः श्रद्धातिशयेन सबहुमानं प्रणम्य कुमारचरणयुगलं जल्पितमाभ्याम् - आर्यपुत्र ! एवमेतद्, नात्र किञ्चिदन्यादृशम् । विभ्रमवत्या भणितम्आर्यपुत्र ! मम पुनरिदं श्रुत्वाऽपगत इव मोहः समुत्पन्नमिव सम्यग् ज्ञानम्, निवृत्त इव विषयरागः, सञ्जातमिव भवभयमिति । कामलतया भणितम् - आर्यपुत्र ! ममापि सर्वमेतत् तुल्यम् । तत एवं व्यवस्थितेऽङ्गीकृतजनोचितं सदृशं निजानुरागस्याज्ञापयत्वार्यपुत्रः यदावाभ्यां कर्तव्यमिति । कुमारेण भणितम् - साधु भवत्यौ ! साधु, उचितो विवेकः, सुलब्धं युवयोर्मनुजत्वम्, येनेदृशी कुशल
को चाहती हैं, अतः वस्तु को नहीं देखती हैं तथा संसार-समुद्र में दुर्लभ सर्वोत्तम मनुष्यत्व को निर्वाण के प्रसाधन के लिए धर्म में नहीं लगाती हैं, अतः अपने भावों को नहीं पहचानती हैं। मृत्यु भयंकर है, स्वभाव से अतिक्रूर है, उसके मार्ग में ये दोनों अपने आपका विचार नहीं करती हैं। अतः अपनी परतन्त्रता को नहीं देखती हैं। विषयरूपी विष असुन्दर हैं, जीवों को अत्यन्त मोहित करनेवाले हैं, गर्भरूप नरक के कारण हैं। मुझे चूंकि वहाँ नियुक्त करती हैं, अत: मेरे भावी परिणाम की चिन्ता नहीं करती हैं। अतः ऐसी स्थिति में अहित में ही प्रवृत्ति कराने के कारण कहो कैसे यथार्थ रूप से इन दोनों का मेरे प्रति अनुराग है ? यह सुनकर दोनों बधुएँ उद्विग्न हुईं, विशुद्ध भावना उत्पन्न हुई, कर्मराशि नष्ट हो गयी, एकदेश चारित्र प्राप्त किया । अतः श्रद्धा की अधिकता से आदरपूर्वक कुमार के चरणों को प्रणाम कर इन दोनों ने कहा- 'आर्यपुत्र ! यह ऐसा ही है, किसी अन्य प्रकार का नहीं है ।' विभ्रमवती ने कहा- 'आर्यपुत्र ! यह सुनकर मानो मेरा मोह नष्ट हो गया, सम्यग्ज्ञान उत्पन्न हो गया, विषयों के प्रति राग की निवृत्ति हो गयी । संसार से भय उत्पन्न हो गया ।' कामलता ने कहा- 'आर्यपुत्र ! मेरे लिए भी ये सब वैसे ही हैं, अतः ऐसी स्थिति में लोगों के योग्य स्वीकार्य अपने अनुराग के सदृश आर्यपुत्र आज्ञा दें कि हम लोगों का क्या कर्त्तव्य है ।' कुमार ने कहा- 'आप दोनों अच्छी हैं, ठीक हैं, विवेक उचित है, आप दोनों ने
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