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नवमी भवो ]
एत्थ अन्नो उवाओ, जहट्ठियमेव साहेमि'त्ति चितिऊण साहियमणेण (पवेसाइनिग्गमणपज्जव साणं नियतं तं ) । 'अहो अकज्जासेवण संकष्पफलं ति संविग्गो से पिया । पेसिओ णेण गेहं । कओ निवायथामे, संतपिओ सहस्सपागाई हिं, कालपरियाएण समागओ पुव्वावत्थं । उचियसमएण पयट्टो देवयाययणं, ओइण्णो रायमग्गे, दिट्ठो रईए । तहेव सामपुव्वयं पेसिया से जालिणी । मोहदोसेण समागओ सुहंकरो । आगयमेते य समागओ राया । तहेव जायाइं वच्चकूदे पडणनिग्गमणाई । पुणो पण पुणो दिट्ठो, पुणो पेसिया पुणो वि हम्मिओ । एवं पुणो बहुसो ति ।
तओ पुच्छामि तुम्भे, कि तीए रईए तम्मि सुहंकरे अणुराओ अस्थि किं वा नस्थिति । माणिणीए भणियं - कुमार, परमत्थओ नत्थि । बुद्धिरहिया य सा रई; जेण न निरूवेइ वत्युं न निहालए नियभावं, न पेच्छए सपरतंतयं, न चिंतेइ तस्सायई ति । कुमारेण भणियं - भोइ, जइ एवं. ता ममम्मि वि नत्थि एयासिमणुराओ, बुद्धिरहियाओ य एयाओ । जेण असुंदरे पयईए निबंधणे इस्साईणं चंचले सरूवेण इच्छंति तुच्छभोए त्ति; अओ न निरूवेंति वत्युं । तहा सव्युत्तमं माणुसत्तं
अपगतः परिजनः । 'नात्रान्य उपाय:, यथास्थितमेव कथयामि इति चिन्तयित्वा कथितोऽनेन ( प्रवेशादिनिपर्यवसानो निजवृत्तान्तः) । 'अहो अकार्यासेवन संकल्पफलम्' इति संविग्नस्तस्य पिता । प्रेषितस्तेन गेहम् । कृतो निवातस्थाने, सन्तर्पितः सहस्रपाकादिभिः, कालपर्यायेण समागतः पूर्वावस्याम् । उचितसमयेन प्रवृत्तो देवतायतनम् अवतीर्णो राजमार्गे दृष्टो रत्या । तथैव सामपूर्वकं प्रेषिता तस्य जालिनी । मोहदोषेण समागतः शुभङ्करः । आगतमात्रे च समागतो राजा । तथैव जातानि वर्चः कूपे पतननिर्गमनानि । पुनः प्रगुणः पुनः दृष्टः, पुनः प्रेषिता, पुनरपि गतः । एवं पुनर्बहुश इति ।
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ततः पृच्छामि युवाम्, किं तस्या रत्यास्तस्मिन् शुभङ्करेऽनुरागोऽस्ति किं वा नास्तीति । मानिन्या भणितम् — कुमार ! परमार्थतो नास्ति । बुद्धिरहिता च सा रतिः, येन न निरूपयति वस्तु, न निभालयति निजभावम्, न प्रेक्षते स्वपरतन्त्रताम् न चिन्तयति तस्यायतिमिति । कुमारेण भणितम् - भवति ! यद्येवम्, ततो मय्यपि नास्त्येतयोरनुरागः, बुद्धिरहिते चैते । येनासुन्दरान् प्रकृत्या निबन्धनानीर्ष्यादीनां चञ्चलान् स्वरूपेणेच्छतस्तुच्छभोगानिति, अतो न निरूपयतो वस्तु ।
आज्ञा दीजिए। परिजन चले गये । 'यहाँ पर अन्य कोई उपाय नहीं है अत: ठीक ठीक कहता हूँ' - ऐसा सोचकर इसने प्रवेश से लेकर निकलने तक का वृत्तान्त कहा । 'ओह ! अकार्य के सेवन करने के संकल्प का फल - इस प्रकार उसके पिता घबराये । उन्होंने घर भेजा । शान्त स्थान में रखा, सहस्रपाक (हजार औषधियों से बनाया हुआ एक प्रकार का तेल ) आदि से सेंक किया । समय पाकर पहली अवस्था में आ गया। योग्य समय पर देवमन्दिर गया, राजमार्ग (सड़क) पर उतरा, रति ने देखा । उसी प्रकार समझाकर उसने जालिनी को भेजा । मोह के दोष से शुभंकर आया । आते ही राजा आ गया। उसी प्रकार मलाशय में गिरना और निकलना। फिर से ठीक हुआ । रति ने पुनः देखा, फिर से जालिनी को भेजा, फिर से गया। इस प्रकार पुनः अनेक बार हुआ ।
अतः आप दोनों से पूछता हूँ, उस रति का शुभंकर में अनुराग है अथवा नहीं ? वह रति बुद्धिहीन है, जिस कारण वस्तु को नहीं देखती है, अपने भाबों को नहीं पहचानती है, अपनी परतन्त्रता को नहीं देखती हैं, उसका भावीफल नहीं देखती है। कुमार ने कहा- 'भवती ! यदि ऐसा है तो मेरे प्रति भी इन दोनों का अनुराग नहीं है और ये दोनों बुद्धिरहित हैं, जिससे स्वभाव से असुन्दर बन्धनों को ईर्ष्यादि के चंचल स्वरूप से तुच्छ भोगों
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