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अट्ठमो भवो 1
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सिओ वाणमंतरो। बद्धं निरयाउयं, निकाचियं रोज्झाणाहिणिवेसेण । चितियं दंडवासिएहिकिमम्हाणमेइणा, राइणो साहेमो ति। साहियं वीससेणराइणो। समागओ राया। दिट्टो णेण भयवं, पच्चभिन्नाओ य । वंदिओ परमभत्तीए । भणिया दंडवासिया भो भो न तुहिं भयवओ किंचि पडिकलमासेवियं ति। दंडवासिएहि भणियं-न किंचि तारिसं। राइणा भणियं-भो एस भयवं अम्हाण सामी महारा यगुणचंदो निरुवसग्गं महिं पालिऊण सयलसंगचाई संपत्तज्झाणजोओ अपडिबद्धो सवभावेसु चिहियाणट्टाणसंपायणपरो एगल्लविहारसेवणेण करेइ सफलं मणयत्तणं ति। दंडवासिएहि भणियं-देव, धन्नो खु एसो। खामिओ तेहिं । राइणा भणियं-केण तुम्हाण एवं साहियं । दंडवासिएहि भणियं-देव, इहेव सो चिटुइ ति। राइणा भणियं-कहिं कहि, आणेह सिग्छ । एयं सोऊण अदंसणीभूओ वाणमंतरो। न दिट्ठो दंडवासिएहि, भणियं च हिं-देव, संपयं चेव दिट्ठो, इयाणि न दीसइ त्ति। राइणा भणियं-भो जइ एवं, ता अमाणुसो सो भयवओ उवसग्गकारी भविस्सइ। ता अलं तेण किलिटुसत्तेण। निवेएह तुन्भे अंतेउराणं सयलजणवयस्स य, जहा हर्षितो वानमन्तरः। बद्धं नरकायुः, निकाचितं रौद्रध्यानाभिनिवेशेन। चिन्तितं दण्डपाशिकःकिमस्माकमेतेन, राज्ञः कथयाम इति। कथितं विष्वक्सेनराजस्य । समागतो राजा । दृष्टस्तेन भगवान्, प्रत्यभिज्ञातश्च । वन्दितः परमभक्त्या। भणिता दण्डपाशिकाः । भो भो न युष्माभिर्भगवतः किंचित् प्रतिकूलमासेवितमिति । दण्डपाशिकैर्भणितम्- न किंचित् तादृशम्। राज्ञा भणितम्-भो एष भगवान् अस्माकं स्वामी महाराजगुणचन्द्रो निरुपसर्गां महीं पालयित्वा सकलसङ्गत्यागी सम्प्राप्तध्यानयोगोऽप्रतिबद्धः सर्वभावेष विहितानुष्ठानसम्पादनपर एक कविहारसेवनेन करोति सफलं मनुजत्वमिति । दण्डपाशिकैर्भणितम् -देव ! धन्यः खल्वेषः । क्षामितस्तैः । राज्ञा भणितम्-केन युष्माकमेतत् कथितम् । दण्डपाशिकर्भणितम्-देव ! इहैव स तिष्ठतीति । राज्ञा भणितम्--कुत्र कुत्र, आनयत शीघ्रम् । एतच्छ त्वाऽदर्शनीभूतो वानमन्तरः । न दृष्टा दण्डपाशिकः, भणितं च तैः-देव ! साम्प्रतमेव दृष्टः, इदानीं न दृश्यते इति । राज्ञा भणितम्-भो यद्येवं ततोऽमानुषः स भगवत उपसर्गकारी भविष्यति । ततोऽलं तेन क्लिष्टसत्त्वेन। निवेदयन ययमन्तःपुराणां सकल जनवजस्य च,
वाला होने के कारण वानमन्तर हर्षित हुआ । अत्यधिक रौद्रध्यान की आसक्ति के कारण नरक की आयु बाँधी। सिपाहियों ने सोचा-हम लोगों को इससे क्या, राजा से कहते हैं । विष्वक्सेन राजा से कहा । राजा आया। उसने भगवान् को देखा और पहचान लिया। परमभक्ति से युक्त हो वन्दना की। सिपाहियों से कहा-'रे सिपाहियो! तुम लोगों ने कुछ प्रतिकूल कार्य तो नहीं किया ?' सिपाहियों ने कहा- 'वैसा कुछ नहीं किया। राजा ने कहा'अरे यह भगवान् हमारे स्वामी महाराज गुणचन्द्र निर्विघ्न पृथ्वी का पालन कर, समस्त परिग्रहों का त्याग कर, ध्यान योग को पा, समस्त पदार्थों के प्रति निरासक्त हो, विहित अनुष्ठान के सम्पादन में रत रहते हुए, अकेले विहार करने का सेवन करते हुए मनुष्यत्व सफल कर रहे हैं।' सिपाहियों ने कहा- 'महाराज ! ये धन्य हैं।' उन्होंने क्षमा मांगी। राजा ने कहा--'तुम लोगों से यह किसने कहा ?' सिपाहियों ने बताया-- 'महाराज ! वह यहीं बैठा है।' राजा ने कहा- 'कहाँ है, कहाँ है ? जल्दी लाओ।' यह सुन वानमन्तर अदृश्य हो गया। सिपाहियों को दिखाई नहीं पड़ा । उन्होंने (आकर) कहा-'महाराज ! अभी-अभी दिखाई दिया था, अब नहीं दिखाई पड़ रहा है। राजा ने कहा-'अरे ऐसा है तो अमानुष होगा, उसने भगवान् पर उपसर्ग किया होगा। अतः उस विरोधी प्राणी से बस करो (अर्थात् उसका खोजना व्यर्थ है)। तुम सब अन्तःपुर के समस्त जन से कहो
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