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________________ ওওও [ समराइच्चकहा कुविओ वाणमंतरो। चितियं च णेण-अहो से महापावस्स सामत्थं, अहो जीवणसत्ती, अहो ममोवरि अवन्ना, अहो परलोयपक्खवाओ। ता तहा करेमि, जहा सव्वं से अवेइ । गहिया महलयरी सिला, विमुक्का तहेव । पीडिओ तीए वि भयवं काएण,न उण भावेण। निरूविओ वाणमंतरेण । जाव न वावाइओ ति । अन्ना विमका, तीए विन वावाइओ ति। विसण्णो वाणमंतरो। चितियं च णेण-न एस महापावो वावाइउं तोरइ। ता करेमि से धम्मंतरायं। विडंबेमि लोए। कंचि गेहं मसिऊण मएमि एयसमोवे मोसं, पयासेमि य लोए, जहा इमिणा महापावेण इयमणचिट्टियं ति । एवं च कए समाणे पाविस्सइ महापावो महई कयत्थणं ति । चितिऊण संपाडियमणेणं । साहियं दंडवासियाण। गया दंडवासिया'। दिट्ठो णेहि भयवं। जाओ तेसि वियप्पो। अहो इमस्स पसन्ना मत्ती, तवसोसियं सरीरं, उवभोयरहिओ आगारो, अणाउलं चित्तं। ता कहं एस एवं करिस्सइ । अहवा विचित्ता गई कवडाण । ता निरूवेमो ताव मोसं। निरूविओ निउंजदेसे दिट्टो यहि । समुप्पन्ना संका। पुच्छिओ भयवं । जाव न जंपइ ति, ताडिओ एक्केण। तहावि न जंपइ ति। करयाए हरि वानमन्तरः। चिन्तितं च तेन -अहो तस्य महापापस्य सामर्थ्यम्, अहो जीवनशक्तिः, अहो ममोपर्यवज्ञा, अहो परलोकपक्षपातः । ततस्तथा करोमि यथा सर्वे तस्यापैति । गृहीता महत्तरी शिला, विमुक्ता तथैव । पीडितस्तयाऽपि भगवान् कायेन, न पुनर्भावेन । निरूपितो वानमन्तरेण । यावन्न व्यापादित इति । अन्या विमुक्ता, तयाऽपि न व्यापादित इति। विषण्णो वानमन्तरः । चिन्तितं च तेन-नैष महापापो व्यापादयितुं शक्यते । ततः करोमि तस्य धर्मान्तरायम। विडम्बयामि लोके । किंचिद् गेहं मुषित्वा मुञ्चाम्येतत्समीपे मोषम, प्रकाशे च लोके, यथाऽनेन महापापेनेदमनुष्ठितमिति । एवं च कृते सति प्राप्स्यति महापापो महती कदर्थनामिति । चिन्तयित्वा सम्पादितमनेन । कथित दण्डपाशिकानाम् । गता दण्डपाशिकाः। दृष्टीभगवान् । जातस्तेषां विकल्पः । अहो अस्य प्रसन्ना मूत्तिः, तपःशोषितं शरीरम्, उपभोगरहित आकारः, अनाकुलं चित्तम् । ततः कथमेष एवं करिष्यति । अथवा विचित्रा गतिः कपटानाम् । ततो निरूपयामः तावन्नोषम् । निरूपितो निकुञ्जदेश, दष्टश्च तैः । समुत्पन्ना शङ्का । पृष्टो भगवान् । यावन्न जल्पतीति ताडित एकेन । तथापि न जल्पतीति। करतया मरा है। अतः वानमन्तर कुपित हुआ और उसने सोचा-ओह ! उस महापापी की सामर्थ्य, ओह जीवनशक्ति, ओह मेरे प्रति अवज्ञा, ओह परलोक के प्रति पक्षपात ! अतः वैसा करता हूँ, जिससे सब नष्ट हो जाय। उसने और भी बड़ी शिला ली और उसी प्रकार छोड़ी। उससे भी भगवान् काय से पीड़ित हुए, भाव से नहीं। वानमन्तर ने देखा- नहीं मरा है । अन्य शिलाएँ छोड़ी तो भी नहीं मरा । वानमन्तर खिन्न हुआ और उसने सोचाइस महापापी को नहीं मारा जा सकता अत: उसके धर्म में विघ्न करता हूँ। संसार में उपहास कराऊँगा । घर से कुछ चुराकर इसके समीप में चुरायी हुई वस्तु को छोडूंगा और संसार में प्रकट कर दूंगा कि इस महापापी ने यह किया है अर्थात् इसने चोरी की है। ऐसा करने पर महापापी अत्यधिक तिरस्कार पायेगा । ऐसा सोचकर इसने (वैसा ही) किया। सिपाहियों से कहा । सिपाही गये। उन्होंने भगवान को देखा। उन्होंने सोचा-3 प्रसन्न मूर्ति, तप से सुखाया हुआ शरीर, उपभोगरहित आकार और आकुलतारहित चित्त ! अतः यह ऐसा कैसे करेगा ? अथवा कपटियों की गति विचित्र है। अतः चुरायी हुई वस्तु को देखता हूँ। निकुंज भाग में देखा, उन्हें दिखाई दी। शंका उत्पन्न हुई। भगवान से पूछा। नहीं बोले । एक ने मारा तो भी नहीं बोले । क्रूर स्वभाव १. 'मणिसमी व हरयधिक ; पास-पाशा, । १, अबभीषपरिभोसरडियो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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