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________________ ७८० [ समराइच्चकहा 'समागओ भयवं तुम्हाण परमसामी, ठिओ उत्तमवए मुत्तिमंतो विय धम्मो, पावपसमणो देसणेण, वंदणिज्जो सयाणं, निबंधणं परमनिव्वुईए महारायगुणचंदो; ता एह, तं अत्तणोऽणुग्गहढाए भत्तिविहवाणुरूवेणमुक्यारेण वंदह त्ति । दंडवासिएहि भणियं-जं देवो आणवेइ । गया दंडवासिया। निवेइयं रायसासणं अंतेउरजणाणं। आणंदिया एए, पयट्टा भयवंतवंदणवडियाए, पत्ता महाविच्छड्डेण। पूइओ भयवं वंदिओ हरिसनिब्भरेहि, थुओ संतगुणदीवणाए। विम्हिया तस्स देसणेणं। एत्यंतरम्मि निवेइयं राइणो सिलावडणनिग्घायमोहपडिबुद्धणं कटुवाहएणं, जहा 'महाराय, एयस्स भयवओ उवरि केणावि गयणचारिणा विमुक्का महंती सिला; न चालिओ भयवं तओ विभागाओ; तन्निवडणनिग्घायओ समागया मे मुच्छा; तओ परं न याणामि, कि कयं तेण भयवओ; एत्तियं पुण जाणामि, एयं पि सिलादुयं तेणेव महापावकम्मेण मुक्क' ति। एयं सोऊण उविग्गा अंतेउरजणा। पीडिओ राया, भणिय च ण-अहो महादुक्खमणहूयं भयवया, अहो किलिटुत्तणं खुड्डजीवाणं, अहो विवेयसुन्नया, अहो जहन्नत्तणं, अहो निसंसया, अहो अलोइयत्तं, अहो गुणपओसो, यथा 'समागतो भगवान् युष्माकं परमस्वामी, स्थित उत्तमव्रते मूर्तिमानिव धर्मः, पापप्रशमनो दर्शनेन, वन्दनीयः सताम्, निबन्धन परमनिर्वृतेर्महाराजगुणचन्द्रः, तत एत, तमात्मनोऽनुग्रहार्थं भक्तिविभवानुरूपेणोपचारेण वन्दध्वमिति । दण्डपाशिकर्भणितम् - यद् देव आज्ञापयति । गता दण्डपाशिकाः । निवेदितं राजशासनमन्तःपुर जनानाम् । आनन्दिता एते, प्रवृत्ता भगवद्वन्दनप्रत्ययं, प्राप्ता महाविच्छAण । पूजितो भगवान् वन्दितो हर्ष निर्भरैः, स्तुतः सद्गुणदीपनया। विस्मितास्तस्य दर्शनेन । अत्रान्तरे निवेदितं राज्ञः शिलापतननिर्घातमोहप्रतिबद्धन काष्ठवाहकेन, यथा 'महाराज ! एतस्य भगवत उपरि केनापि गगनचारिणा विमुक्ता महती शिला, न चालितो भगवान ततो विभागात्, तन्निपतननिर्घाततः समागता मे मूर्छा, ततः परं न जानामि, किं कृतं तेन भगवतः, एतावत पुनर्जानामि, एतदपि शिलाद्विकं तेनैव पापकर्मणा मुक्तमिति । एतच्छृ त्वोद्विग्ना अन्तःपुरजनाः। पीडितो राजा, भणितं च तेन-अहो महादुःखमनुभूतं भगवता, अहो क्लिष्टत्व क्षुद्रजीवानाम्, अहो विवेकशून्यता, अहो जघन्यत्वम्, अहो नृशंसता, अहो अलौकिकत्वम्, अहो गुणप्रद्वषः, अहो अकल्याण कि तुम्हारे परमस्वामी आये हैं, मूर्तिमान धर्म के समान उत्तम व्रत में स्थित हैं, (उनके) दर्शन से पाप शान्त हो जाता है । सज्जनों के द्वारा वे वन्दनीय हैं, परम शान्ति से युक्त (वे) महाराज गुणों में चन्द्रमा के समान (गुणचन्द्र) हैं । अत: आओ, अपने अनुग्रह के लिए भक्ति और वैभव के अनुरूप सेवा कर उनकी वन्दना करो। सिपाहियों ने कहा-'महाराज की जैसी आज्ञा।' सिपाही चले गये। राजा की आज्ञा को अन्तःपुर में निवेदन किया । ये लोग आनन्दित हुए, भगवान् की वन्दना के लिए चल पड़े। बड़े वैभव के साथ आये, भगवान् की पूजा की, हर्ष से भरकर वन्दना की, सद्गुणों का प्रकाशन कर स्तुति की, उनके दर्शन से विस्मित हुए। इसी बीच शिला के गिरने की कड़क से मूच्छित होकर होश में आये हुए लकड़ी ढोनेवाले ने राजा से निवेदन किया-'महाराज ! आकाश में गमन करनेवाले किसी ने भगवान् के ऊपर यह बहुत बड़ी शिला छोड़ी, फिर भी भगवान को उस स्थान से विचलित नहीं कर सका । उस (शिला) के गिरने की कड़क से मुझे मूर्छा आ गयी, अत: नहीं जानता हूँ, उसने भगवान् का क्या किया ? इतना जानता हूँ कि ये दोनों शिलाएं उसी पापी ने छोड़ी हैं।' यह सुनकर अन्तःपुर के लोग उद्विग्न हो गये। राजा को पीड़ा हुई । उसने कहा-'ओह ! भगवान् ने महादुःख भोगा । क्षुद्र जीवों का विरोध आश्चर्यमय है। ओह विवेकशून्यता ! ओह नीचता ! ओह नृशंसता! Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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