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________________ अट्ठमो भवो ] ७६१. अहो अकल्लाणभायणया, अहो कम्मपरिणामसामत्थं, जेण भयवओ वि परिचतसव्वसंगस्स सम्वभावसमभाववत्तिणो सयलजणोवयारनिरयस्स अप्पडिबद्धविहारिणो एवमवसग्गकरणं ति। सम्वहा नस्थि नामाकरणिज्ज मोहपरतंताणं। एवं विलविऊण 'अहो भयवओ वि उवसग्गो' ति गहिओ महासोएण। तं च तहाविहं वियाणिऊण अभिप्पेयज्झाणसमत्तीए अणाढविऊणमन्नज्माणं ओसरिऊण कायचेझैं भणियं भयवया–महाराय, अलमेत्थ सोएण। सकयकम्मफलमेयं, केत्तियं वा इमं । अणादिकम्मसंताणवसवत्तिणो जीवस्स दुक्खरूवो चेव संसारो। अन्नं च सुणसु जोवा सकम्मपरिणामओ विचित्ताई। सारीरमाणसाइं दुक्खाइ भमंति भुजंता ॥ ९४७ ।। जेणेव उ संसारे जम्मजरामरणरोगजणियाई। पियविरहपरम्भत्थणहीणजणोमाणणाई च ॥९४८ ॥ तेणेव उ सप्पुरिसा किलेसबहुलस्स भवसमुदस्स। धणियं विरत्तभावा धम्मतरुवरं पवज्जति ॥ ६४६ ॥ भाजनता, अहो कर्मपरिणामसामर्थ्यम्, येन भगवतोऽपि परित्यक्तसर्वसङ्गस्य सर्वभावसमभावर्तिनः सकलजनोपकारनिरतस्याप्रतिबद्धविहारिण एवमुपसर्गकरणमिति। सर्वथा नास्ति नामाकरणीयं मोहपरतन्त्राणाम् । एवं विलप्य 'अहो भगवतोऽप्युपसर्गः' इति गृहीतो महाशोकेन । तं च तथाविधं विज्ञायाभिप्रेतध्यानसमाप्तौ अनारभ्यान्यध्यानमुपसृत्य कायचेष्टां भणितं भगवता--महाराज ! अलमत्र शोकेन, स्वकृतकर्मफलमेतत्, कियद् वेदम् । अनादिकर्मसन्तानवशतिनो जीवस्य दुःखरूप एव संसारः। अन्यच्च शृणु जीवाः स्वकर्मपरिणामतो विचित्राणि । शारीरमानसानि दुःख.नि भ्रमन्ति भुजानाः ।।९४७।। येनैव तु संसारे जन्मजरामरणरोगजनितानि। प्रियविरहपराभ्यर्थनहीनजनावमाननानि च ।।९४८।। तेनेव तु सत्पुरुषाः क्लेश बहुलस्य भवसमुद्रस्य । गाढं विरक्तभावा धर्मतरुवरं प्रपद्यन्ते ॥६४६।। ओह अलौकिकता ! ओह गुणों के प्रति द्वेष और अकल्याणपात्रता ! ओह कर्मों के फल की सामर्थ्य जो कि समस्त परिग्रहों का त्याग किये हुए, सभी पदार्थों में समान दृष्टि रखनेवाले, समस्त मनुष्यों के उपकार में निरत, एकलविहारी भगवान् पर भी इस प्रकार का उपसर्ग हुआ ! मोह से परतन्त्र हुए प्राणियों के लिए सर्वथा कुछ अकरणीय नहीं है-इस प्रकार विलाप कर 'ओह भगवान् का उपसर्ग' इस प्रकार अत्यधिक शोकग्रस्त हो गया। उसे उस प्रकार जानकर, इष्ट ध्यान की समाप्ति होने पर दूसरे ध्यान का आरम्भ न कर, शरीर की चेष्टाओं के समीप जाकर भगवान् ने कहा- 'महाराज ! इस विषय में शोक मत करो, यह अपने किये हुए कर्मों का फल है। अथवा यह कितना-सा है, अनादि कर्मरूप सन्तति के वशवर्ती प्राणी का संसार ही दुःखरूप है। दूसरी बात भी है, सुनो इस संसार में अपने ही कर्मों के फलस्वरूप जीव जन्म, बुढ़ापा और मरणरूपी रोगों से उत्पन्न प्रियविरह, दूसरों से याचना, हीनजनों के द्वारा किये हुए निरादररूप विचित्र शारीरिक और मानसिक दुःखों को भोगते हुए जिससे भ्रमण करते हैं, उसी से सज्जन पुरुष क्लेश की बहुलतावाले संसार-समुद्र में अत्यधिक विरक्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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