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________________ ७८२ सम्मत्तमूलमंतं महंत सुयनाणबद्ध बंधिल्लं । छट्ठमाइवित्थियपवरतवचरितसाहालं ॥ ६५० ॥ सोलंगवरद्वारस] सहस्सघणपत्तबहल छाइल्लं । तिर्यासदमणुयबहुविहपायडरुद्दरिद्धिकुसुमालं ॥ ६५१ ॥ अग्वाबाहुप्पेहड निरुवमखयर हिय भुवण महिएणं । मणिकमणिज्जेणं सिवसोक्खफलेण फलवंतं ॥ ६५२ ॥ जिणजलय केवलामलजलधारानिवहरुइ र सिच्चतं । विविमणिविहग से वियमणुदियहम छिन्नसंताणं ॥ ६५३ ॥ ते उण तिवसविलासिणिमुहपंकयभमरभावमणुहविडं । धम्मतरुकुसुमभूयं पावंति फलं पि मुत्तिसुहं ॥ ९५४ ॥ कावुरिसा उण बंधवनेहक्खयलक्ख णिच्चवे हीण | मूढा तुच्छाण कए दढं किलिस्संति भोयाण ॥ ६५५ ॥ Jain Education International सम्यक्त्वमूलवन्तं महाश्रुतज्ञानबद्ध स्कन्धवन्तम् । षष्ठाष्टमादिविस्तृत प्रवरतपश्चारित्रशाखावन्तम् ॥५०॥ शीलाङ्गवराष्टादशसहस्रघन पत्र बहलच्छायावन्तम् । त्रिदशेन्द्र मनुज बहुविधप्रकटरुचि र ऋद्धिकुसुमवन्तम् ॥५१॥ अव्याबाधोद्भटनिरुपमक्षय रहित भुवनमहितेन । मुनिजनकमनीयेन शिवसौख्यफलेन फलवन्तम् ॥६५२। जिनजलदकेवलामलजलधारानिवहरुचिरसिच्यमानम् । विविध मुनिविहगसेवितमनुदिवस मच्छिन्नसन्तानम् ॥५३॥ ते पुनस्त्रिदशविलासिनीमुखपङ्कजभ्रमरभावमनुभूय । धर्मतरुकुसुमभूतं प्राप्नुवन्ति फलमपि मुक्तिसुखन् ।।६५४ ॥ कापुरुषाः पुनर्बान्धव स्नेहक्षयलक्ष्यनित्यवेधिनाम् । मूढास्तुच्छानां कृते दृढं क्लिश्यन्ति भोगानाम् ॥५५॥ भावों से मुक्त हो धर्मरूपी श्रेष्ठ वृक्ष का सुदृढ़ आश्रय लेते हैं । सम्यक्त्व उस वृक्ष का मूल है। महान् श्रुतज्ञान उसका स्कन्ध है, वह षष्टाष्टमादि विस्तृत और उत्कृष्ट तप से युक्त चारित्ररूपी शाखाओं वाला है, शील के श्रेष्ठ अठारह हजार भेदरूपी घने पत्तों से अत्यधिक छाया वाला है, देवेन्द्र और मनुष्यों में अनेक प्रकार से प्रकट सुन्दर ऋद्धिरूपी फूलोंवाला है, अव्याबाध, सर्वोत्तम, निरुपम, क्षयरहित, संसार के द्वारा प्रशंसनीय, मुनिजनों के लिए सुन्दर बगनेवाले मोक्षसुखरूपी फल से फलवाला है, जिनेन्द्र भगवान् रूपी मेघ की केवलज्ञानरूपी स्वच्छ और सुन्दर जब धाराओं के समूह से सींचा जाता है, अनेक प्रकार के मुनिरूपी पक्षियों से सेवित है, प्रतिदिन उसकी परम्परा का छेद नहीं होता है । वे मुनिजन धर्मवृक्ष के फूलरूप देवांगनाओं के मुखकमलों के, भ्रमरों के समान भावों का अनुभव कर मुक्तिसुखरूप फल भी पाते हैं। मूर्ख कायरपुरुष वान्धवों के स्नेह का क्षय करने रूप लक्ष्य के लिए नित्य छेदनेवाले तुच्छ भोगों के लिए अत्यधिक दुःखी होते हैं और नीचजनों की सेवा, अनेक तरह के [ समराइच्चकहा For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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