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________________ अट्ठमो भवो] ७८३ नीयजणपज्जुवासणमणभिमयाणेयवेसकरणं च । उन्भडसमरपवेसं नियबंधवघायणं चेव ॥ ६५६ ॥ वित्थिण्णजलहितरणं सम्भावियमित्तवंचणं तह य। तं नत्थि जं न बहुसो करेंति विसयाहिलासेण ॥ ६५७ ॥ तह वि य पुन्यज्जियविविहकम्मपरिणामओ उ संपत्ती। परिणामदारुणेहि वि न होइ भोएहि सम्वेहि ॥६५८ ॥ पेच्छंता वि य धणियं विज्जुलयाडोवचंचलं जीयं । अयरामरं व मुणिऊण तहवि अप्पाणयं मूढा ॥६५६ ॥ कामं विसयासेवणपमहेहि सकम्मरुक्खमूलाई । कलसे हि' सिंचिऊणं फलाइ परिणामविरसाइं॥६६०॥ निरयगमणाइयाइं भुजंता णेयभेयभिन्नाई। हिंडंति अकयपुण्णा घोरे संसारकंतारे ॥६६१ ॥ नीचजनपर्युपासनमन भिमतानेकवेशकरणं च । उद्भटसमरप्रवेशं निजबान्धवघातनं चैव ।।९५६।। विस्तीर्णजलधितरणं सद्भावितमित्रवञ्चनं तथा च । तन्नास्ति यन्न बहुशः कुर्वन्ति विषयाभिलाषेण ॥९५७।। तथाऽपि च पूर्वाजितविविधकर्मपरिणामतस्तु सम्प्राप्तिः । परिणामदारुणैरपि न भवति भोगैः सर्वैः ।।९५८॥ पश्यन्तोऽपि च गाढं विद्युल्लताटोपचञ्चलं जीवितम् । अजरामरमिव ज्ञात्वा तथाऽप्यात्मानं मूढाः ॥९५६।। कामं विषयासेवनप्रमूखैः स्वकर्मवक्षमलानि । कलशैः सिक्त्वा फलानि परिणामविरसानि ॥६६०॥ निरयगमनादिकानि भुञ्जाना अनेकभेदभिन्नानि । हिण्डन्ते अकृतपुण्या घोरे संसारकान्तारे ॥६६॥ अमान्य वेषों को बनाना, प्रचण्ड युद्ध में प्रवेश करना, अपने ही बान्धवों का घात करना, विस्तृत समुद्र तैरना, सद्भाव रखनेवाले मित्रों को धोखा देना तथा अन्य ऐसा कार्य नहीं है जो विषयाभिलाषा से ये न करते हों। तथापि पूर्वोपाजित अनेक प्रकार के कर्मों के फलस्वरूप परिणाम में होने पर भी सभी भोगों की प्राप्ति नहीं होती है। जीवन को विद्युल्लता के समान अत्यन्त चंचल देखते हुए भी मूढ़ लोग अपने आपको अजर-अमर के समान जानकर, अपने कर्मरूपी वृक्ष की जड़ों को विषयसेवनरूप प्रमुख कलशों से सींचकर, परिणाम में नीरस और अनेक भेदों से युक्त नरकादि गमनों को भोगते हैं और पुण्य न कर संसाररूपी गहनवन में भटकते रहते हैं । सो हे सौम्य ! Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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