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[समराइच्चकहा
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ता एवंविहरूवे संसारे पयइनिग्गुणे सोम। कम्मवसयाणमेवं विहाइ को पुच्छए इहई ॥६६२ ॥ मरएसु कम्मवसएण दारुणं सुणसु जं मए दुक्खं । पत्तं अणंतखुत्तो परिभमंतेण संसारे ॥ ६६३ ॥ अपइट्ठाणे नरए तेत्तीसं सागराइ अणवरयं ।। वज्जसिलापउमेसुं भिन्नो उप्फिडणपडणेहि ॥ ६६४ ॥ सीमंतयम्मि य तहा पक्को निरयग्गिसंपलितास ।। कंदूसु य कुम्भीसु य लोहकवल्लीसु य घणासु ।। ६६५॥ सेसेस वि नरएसं पव्वयजंतेहि करगरहि च । वहिओ म्हि मंदभग्गो अन्नेहि य तिव्वसत्हिं ॥ ६६६ ॥ भिन्नो खइयो य अहं अइरोइतिसूलवज्जतुंडेहि । तत्तजुपरहवरेसु य भिन्नच्छो वाहिओ बहुसो ॥ ६६७ ॥
तत एवंविधरूपे संसारे प्रकृतिनिर्गणे सौम्य । कर्मवशगानामेवंविधानि कः पृच्छतीह ॥९६२।। नरकेष कर्मवशगेन दारुणं शृणु यन्मया दुःखम् । प्राप्तमनन्तकृत्वः परिभ्रमता संसारे । ६६३॥ अप्रतिष्ठाने नरके त्रयस्त्रिशतं सागरान अनवरतम । वज्रशिलापछेषु भिन्न उत्स्फिटनपतनैः ।।६६४।। सीमन्तके च तथा पक्वो निरयाग्निसम्प्रदीप्तासु । कन्दूषु च कुम्भीषु च लोहकटाहीषु च घनासु ॥६६५।। शेषेष्वपि नरकेषु पर्वतयन्त्रैः करपत्रैश्च । वधितोऽस्मि मन्दभाग्योऽन्यैश्च तीव्रशस्त्रैश्च ।।६६६।। भिन्नः खादितश्चाहमतिरौद्रत्रिशूलवज्रतुण्डैः । तप्तयुगरथवरेषु च भिन्नाक्षो' वाहितो बहुशः ॥६६७॥
स्वभाव से निर्गुण इस संसार में कर्म के वशीभूत इस प्रकार के दुःखों को कौन पूछता है ? कर्म के वश संसार में भ्रमण करते हुए नरकों में जो मैंने अनन्त दारुण दुःख प्राप्त किये हैं, उन्हें सुनो-अप्रतिष्ठान नरक में तेतीस सागर तक निरन्तर वज्रशिलारूप कमलों पर पटककर भेदा गया, सीमन्तक नरक में जलती हुई नरकाग्नि में पंतीली, हाँडी तथा घने लोहे के कहाड़ों में पकाया गया। शेष नरकों में भी मन्दभाग्य मैं पर्वतयन्त्रों, आरियों तथा अन्य तीक्ष्ण अस्त्रों द्वारा वध किया गया। अति भयंकर त्रिशूलों और वज्र की नोकों द्वारा भेदकर मैं (कई बार) खाया गया। अनेक बार आँखें फोड़कर तपाये हुए जुओं वाले रथों पर मैं बैठाया गया। वहां पर
१. भिन्नयो--. ज्ञा.।
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