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________________ छट्टो भवो] ५२७ दुइओ, सो वि तहेव । तो दुवारमग्याडिऊण गओ साह। एगते ठिओ सज्मायजोगणं । इयरे वि निच्चेट्टा तहेव चिट्ठति । दिट्टा परियणेणं, उदएण सिंचिऊण ससंभमं वाहित्ता, जाव न जंपंति, तओ निवेइयं रायपुरो हयाणं, जहा इमिणा वृत्तंतेण केणइ साहुणा कुमारा एवं कय त्ति। तओ ते निरूविऊण आयरियसमीवं गओ राया। पणमिओय णायरिओ, भणिओ य-भयवं, खमेह एयमवराह वालयाणं । आयरिएण भणियं -किमेयं ति नावगच्छामि। कहिओ से वुत्तंतो राइणा । तओ आयरिएण भणियं -वीयरागसासणसंपायणरया तप्पहावओ विइयपरमत्था परलोयभीरुयत्तेण य इहलोयसरीरे दढमपडि बंधयाए ख मेंति सपलसत्ताणं साहुणो न पुण पाणभएणं ति । तहावि कारणं पइ समायरियं जइ केणावि भवे, तओ पुच्छावेमि साहुणो। तओ आयरिएण पुच्छिया साहुणों । तेहिं भणियं - भयवं, न अम्हे वियाणामो ति । आयरिएण भणियं-महाराय, नेयमिह साहूहि ववसियं । राइणा भणियं-भयवं, साहुणा न एत्थ संदेहो। आयरिएण भणियं-महाराय, जइ एवं, ता एवं भविस्सइ । अस्थि एगो आगंतुगो' साहू; तेणेयमणुचिट्ठियं भवे । राइणा भणियं--भयवं, कहि पुण सो साहू । द्वारमुद्घाट्य गतः साधुः । एकान्ते स्थितः स्वाध्याययोगेन । इतरावपि निश्चेष्टौ तथैव तिष्ठतः । दृष्टौ परिजनेन, उदकेन सिक्त्वा ससंभ्रमं व्याहृतौ, यावद् न जल्पतः । ततो निवेदितं राजपुरोहिताभ्याम, यथाऽनेन वृत्तान्तेन केनचित् साधुना कुमारौ एवं कृताविति । ततस्तो निरूप्य आचार्यसमीपं गतो राजा । प्रगतश्च तेनाचार्यः, भणितश्च । भगवन् ! क्षमस्वैतमपराधं बालकयोः। आचार्येण भणितम् -किमेतदिति नावगच्छामि । कथितस्तस्य वृत्तान्तो राज्ञा। तत आचार्येण भणितम् - वीतराग गासनसम्पादन र तास्तत्प्रभावतो विदितपरमार्थाः परलोकभीरुकत्वेन च इहलोकशरीरे दढमप्रतिबन्धतया क्षमयन्ति सकलसत्त्वान साधवः, न पुनः प्राणभयेनेति । तथापि कारणं प्रति समाचरितं यदि केनापि भवेत् ततः प्रच्छयामि साधन । आचार्येण पृष्टाः साधवः । तैर्भणितम्-भगवन् ! न वयं विनानीम इति आचार्येण भणितम-महाराज! नेदमिह साधुभिर्व्यवसितम् । राज्ञा भणितम -- भगवन् ! साधुना, नात्र सन्देहः । आचार्येण भणितम् - महाराज ! यद्येवं तत एवं भविष्यति । अस्त्येक आगन्तुकः साधुः, तेनेदमनुष्ठितं भवेत् । राज्ञा भणितम् -भगवन् ! कुत्र पनः स साधुः । चला गया। स्वाध्याय के निमित्त एकान्त में बैठ गया। दोनों वैसे ही निश्चेष्ट पड़े रहे। परिजनों ने देखा । जल सींचकर शीघ्र ही बात की, किन्तु उत्तर नहीं मिला। तब दोनों राजपुरोहितों ने निवेदन किया कि किसी साधु ने मारों के प्रति इस प्रकार का कार्य किया है। तब उन दोनों को देखकर राजा आचार्य के पास गया। उसने आचार्य को प्रणाम किया और बोला-"दोनों बालकों के इस अपराध को क्षमा करो।" आचार्य ने कहा"यह कैसे हुआ, मैं नहीं जानता हूँ।" राजा ने उस वृत्तान्त को कहा । तब आच र्य ने कहा-- “वीतराग शासन के सम्पादन में लगे हुए, उनके प्रभाव से परमार्थ को जानने वाले, परलोक से डरने वाले, इस लोक में शरीर से अत्यन्त निस्पह होने के कारण साधु सपत्त प्राणियों को क्षमा करते हैं प्राणों के भय से नहीं । तथापि कारण पाकर किसी ने ऐसा किया है तो मैं साधुओं से पूछता हूँ।" तब आचार्य ने साधुओं से पूछा । उन्होंने कहा--- "भगवन् ! हम लोग नहीं जानते हैं।" आचार्य ने कहा "महाराज! साधुओं ने यह नहीं किया होगा।" राजा ने कहा - "भगवन् ! साधु ने किया, इसमें कोई सन्देह नहीं है ।" आचार्य ने कहा-"महाराज ! यह बात है तो ऐसा हुआ होगा । एक आगन्तुक साधु है, उसने यह किया होगा।' राजा ने कहा--"भगवन् ! वह साधु कहाँ है ?" आचार्य ने कहा - १. रइपहाव नो .-ख, रयाणं-क । २. आगंतुओक । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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