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[ समाहच्चकहा आयरिएण भणियं-दसेह से तयं । दैसिओ एगेण साहुणा नाइदूरम्मि चेव सालतरुवरसमीवे झाणसंठिओ ति। पच्चभिन्नाओ य राइणा । कुभारावराहलज्जिएणं पणमिओ य णं । दिन्नो से धम्मलाहो । भणिओ य पच्छा । भो महासावग, जुत्तमेयं जं तुज्झ संतिए रज्जे इसीणं कयत्थणा कुमाराणं अणाहत्तणं' च । तओ बाहजलभरियलोयणेग राइणा भणियं- भयवं, लज्जिओ म्हि अहिवं इमिणा पमायचरिएणं । अस्थि मम एस दोसो; तहावि भयवं करेह अणुग्गह, संजोएह ते कुमारे। साहुणा भणियं - संजोएमि चरणगुणविहाणेणं न उणं अन्नह ति। राइणा भणियं-भय, अणुमय ममेयं, नवरं कुमारा पुच्छ्यिव्व ति। साहुणां भणियं - लहुं पुच्छेह। राइणा भणियं-- भयवं, ने सक्केति ते जंपिउं । साहुणा भणियं-एहि, तत्थेव वच्चामो; अहं जंपावेमि त्ति । आगया कुमाराण समीवं । दिट्ठा य हिं परमजोगिणो व्व निरुद्धसयलचेटा कुमारा। आयत्तीकयं च हैसि साहुणा वयणमेत्तं । पुच्छिया य णेणं-भो कुमारया, इसिकयत्थणापमायजणियकम्मतरुकुसुमुग्गमनुव्वरूवमेयं, फलं तु निरयाइवेयणा। ता जइ भे अस्यि पच्छायावी, ता पवज्जह कम्मतरुमहाकुहाडं पव्वज्ज ।
आचार्येण भगितम-दर्शयतास्य तम् । शित एकेन साधुना नातिदूरे एव सालतरुवरसमीपे ध्यानसंस्थित इति । प्रत्यभिज्ञातश्च राज्ञा । कुमारापराधलज्जितेन प्रणतश्च तेन । दत्तस्तस्य धर्मलाभः, भणितश्च पश्चात-भो महाश्रावक ! युक्तमेतद् यत् तव सत्के राज्ये ऋषीणां कदर्थना कमाराणाम. नाथत्वं च। ततो बाष्पजलभृतलोचनेन राज्ञा भणितम् - भगवन ! लज्जितोऽस्मि अधिकमनेने प्रमादचरितेन। अस्ति ममैष दोषः, तथापि भगवन ! कर्वनग्रहम, संयोजय तौ कमारौ। साधना भणितम्-संयोजयामि चरणगुणविधानेन न पुनरन्यथेति । राज्ञा भणितम्-भगवन् ! अनुमतं ममैतद. नवरं कमारौ प्रष्टव्याविति । साधना भणितम- लघ पच्छत । राज्ञा भणितम- भगवन | न शक्नुतस्तौ जल्पितुम् । साधुना भणितम्-एहि तत्रैव वजावः, अहं जल्पयामीति । आगतौ कुमारयोः समीपम् । दृष्टौ च ताभ्यां परमयोगिनाविव निरुद्धसकलचेष्टो कुमारौ। आयत्तीकृतं च तयोः साधना वचनमात्रम् । पृष्टौ च तेन - भोः कुमारौ ! ऋषिकदर्थनाप्रमादजनित कर्मतरुक सुमोमपूर्वरूपमेतत, फलं त निरयादिवेदना । ततो यदि युवयोरस्ति पश्चात्तापः, तत: प्रपद्यथां कर्मतरुमहा
‘उसे दिखलाता हूँ।" एक साधु ने समीप के ही साल वृक्ष के नीचे ध्यान लगाये हुए साधु को दिखाया । राजा ने पहचान लिया। उसने कुमारों के अपराध के कारण लज्जित होकर प्रणाम किया। उसे धर्मलाभ मिला । पश्चात (साधु ने) कहा -- "हे महाश्रावक ! तुम्हारे जैसों के राज्य में ऋषियों का अपमान और कुमारों की स्वच्छन्द वत्ति क्या उचित है ?" तब आँखों में आँसू भरकर राजा ने कहा -"भगवन् ! मैं इस प्रमाद के आचरण के कारण अत्यधिक लज्जित हूँ। मेरा यह दोष है तथापि भगवन् ! अनुग्रह कीजिए । उन दोनों कुमारों को ठीक कर दोजिए।" साध ने कहा- "यदि चारित्र धारण करें तो ठीक किये देता है, दूसरे प्रकार से नहीं।" राजा ने कहा- "भगवन ! यह मुझे मंजर है। हम दोनों कुमारों से कुछ पूछना चाहते हैं।" साधु ने कहा "जल्दी पूछिए।" राजा ने कहा - "भगवन् ! वे दोनों बात नहीं कर सकते हैं।" साधु ने कहा -- "आओ, वहीं चलें, मैं बात कराता हूँ।" दोनों कुमारों के समीप आये । उन दोनों को परमयोगी के समान समस्त चेष्टाओं से रहित देखा । साधु के वचन मात्र से वे दोनों वशीभूत हो गये । साधु ने उन दोनों से पूछा (कहा) ---ऋषि का अपमान करने के प्रमाद से उत्पन्न कल वक्ष के पुष्पोदगम का यह पूर्व रूप है और फन नरकादि वेदमा है । तब यदि आप दोनों को पश्चात्ताप है तो कर्मवक्ष के लिए बहुत
१. कुमाराण य अवुहत्तणं नि-क । २. 'जइ य न नास्य तिरिय मणुयदुक्खाण भायणो' इत्यधिक:-क ।
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