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छट्ठो भवो]
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मोएमि अहं इमाओ उवद्दवाओ, भवामि य परलोयसाहणुज्जयाणं सहाओ त्ति । कुमारेहिं भणियंभयवं, अणुग्गहो त्ति । लज्जिया अम्हे इमिणा पमायचरिएणं, अत्थि णे महतो अणुयावो, पवज्जामो य पव्वज्ज जइ गुरू अणुजाणंति । तओ' अणुन्नाया गुरूहिं । संजोइया साहुणा अंगसंघाएण परमगुणसंघाएण य । तओ पवन्ना पव्वज्जं। परिण या य तेसि समणगुणा। एवं च जहुत्तकारीणं अइक्कंतो कोइ कालो। ताणं च पुरोहियकुमारस्स कम्मोदएणं विइयजिणधम्मसारस्स वि 'बला इमिणा पवाविय' त्ति समुप्पन्नो गुरुपओसो। न निदिओ जेणं नालोइओ गुरुणो। तओ मरिऊणं अहाउयक्खएण समुप्पन्नो ईसाणदेवलोए भुंजेइ दिव्वभोए। अइक्कतो कोइ कालो रइसागरावगाढस्स।
___ अग्नया य वरच्छरापरिगयरस मिलाणाई सुरहिकुसुमदामाइं, पयम्पिओ कप्पपायवो, पणटाओ हिरिसिरीओ, उवरत्ताई देवदूसाई, समुप्पन्नो दीणभावो, उत्थरियं निदाए, विउडिओ कामरागो, भमडिया दिट्ठी, समुप्पन्नो कम्पो, वियंभिया अरइ ति । तओ तेण चितियं 'हंत, किमेयं' ति । कुठारं प्रव्रज्याम् । मोचयाम्यहमस्मादुपद्रवात, भवामि च 'परलोकसाधनोद्यतयो: सहाय इति । कुमारैर्भणितम-- भगवन् ! अनुग्रह इति । लज्जितावावामनेन प्रमादचरितेन, अस्त्यावयोर्महाननुतापः, प्रपद्यावहे च प्रवज्यां यदि गुरवोऽनुजानन्ति । ततोऽनुज्ञातो गुरुभिः । संयोजितौ साधुना अङ्गसंघातेन परमगुणसंघातेन च। ततः प्रपन्नौ प्रव्रज्याम्। परिणताश्च तयोः श्रमणगुणाः । एवं च यथोक्तकारिणोरतिक्रान्तः कोऽपि कालः। तयोश्च पुरोहितकुमारस्य कर्मोदयेन विदितजिनधर्मसारस्यापि 'बलादनेन प्रवाजितः' इति समुत्पन्नो गुरुप्रद्वषः । न निन्दितस्तेन, नालोचितो गुरोः । ततो मृत्वा यथायुःक्षयेण समुत्पन्न ईशानदेवलोके भुङ वते दिव्यभोगान् । अतिक्रान्तः कोऽपि कालो रतिसागरावगाढस्य ।
___ अन्यदा च वराप्सरःपरिगतस्य म्लामि सुरभिकसुमदामानि, प्रकम्पितः कल्पपादप: प्रनष्ट ह्रीश्रियौ, उपरक्तानि देवदूष्यानि, समुत्पन्नो दीनभावः, उत्स्तृतं (आक्रान्तं) निद्रया, विकुटितः (विनष्टः) कामरागः, भ्रान्ता दृष्टिः, समुत्पन्न कम्पः, विजृम्भिता अरतिरिति । ततस्तेन चिन्तितम् बड़ी कुल्हाड़ी के समान प्रव्रज्या धारण करो। मैं इस उपद्रव से मुक्त किये देता हूँ और परलोक का साधन करने के लिए उद्यत आप दोनों का सहायक होता हूँ।" दोनों कुमारों ने कहा-भगवन् ! "यह अनुग्रह है । हम दोनों प्रमादपूर्वक किये हुए आचरण से लज्जित हैं, हमें बड़ा खेद है। यदि माता-पिता आज्ञा देते हैं तो हम प्रव्रज्या धारण करते हैं !'' तब माता पिता ने आज्ञा दी। अंग को जोड़ तथा उत्कृष्ट गुणों से युक्त कर साधु ने ठीक कर दिया। फिर उन दोनों ने दीक्षा धारण की। उन दोनों में श्रमण के गूण प्रकट हए। इस प्रकार मनिदीक्षा धारण किये हुए कुछ समय बीत गया। उन दोनों में एक पुरोहित कुमार के कर्मोदय से धर्म के सार को जानते हुए भी यह गुरु के प्रति द्वेष उत्पन्न हुआ कि इसने हमें बलात् प्रवजित किया है। उसने न तो गुरु की निन्दा की, न आलोचना की। तब आयु का क्षय हो जाने के कारण मरकर ईशान स्वर्ग में उत्पन्न हुआ और दिव्य भोगों को भोगा। रतिसागर में निमग्न हए कुछ काल बीत गया। .
एक बार उत्तम अप्सराओं से घिरे हर उसकी सुगन्धित पुष्पों की माला म्लान पड़ गयी, कल्पवृक्ष कम्पित हुआ, ह्री और श्री नष्ट हो गयी, देववस्त्र म्लान पड़ गये । दीनभाव उत्पन्न हुआ, निद्रा से आक्रान्त हुआ, कामराग नष्ट हो गया, दृष्टि भ्रान्त हो गयी, कंपकंपाहट उत्पन्न हो गयी, अरति उत्पन्न हो गयी। तब उसने सोचा - हाय !
१. 'पुलोइयो राया साहुणो । सो थाहिऊग संबंधिवुत्ततं इसस' इत्यधिक:-क। २. अव रत्ताई-के।
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