SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 80
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [ समराइच्चकहा वियाणिया चलगाई, विसण्णो हियएणं, विद्दाणो परियणो विल वियं अच्छराहि । तओ 'किमि मिणा मोहचेट्टिएणं; पुच्छामि ताव भयवंतं पउमनाहं तित्थयर, कहिं मे उववाओ, सुलहबोहिओ वानव' त्ति समागओ पुव्वविदेहं । पणमिओ तेलोक्कनाहो पुच्छिओ य। सिट्ठ भयवया । उववाओ जम्बूद्दीवदाहिणभर हे कोसम्बीए नयरीए । दुल्लहबोहिओ तुमं । संचिणियं तुमए गुरुपओसेण इमिणा पगारे अबोहिबीयं । नोसेसमाचिक्खिओ पुग्वभववइयरो । तओ तेण चितियं-हंत एद्दहhara वि गुरुडणी भावस्स दारुणो विवागो ति । भयवया भणियं - भो देवाणुप्पिया, न एस थेवो । इह खलु इहलोगोवयारी वि कयन्नुणा बहु मन्नियव्दो, किमंग पुण परलोगोवयारी । परलोगोवारिणो य गुरवो; जओ फेडंति मिच्छत्तवाहि, पणासेंति अन्नाणतिमिरं ठवेंति परमपयसाहिया किरियाए, चोइति खलिएसु, संथवेति गुणरयणे । एवं च देवाणुप्पिया, मोएंति जम्मजरामरणरोय सोय बहुलाओ संसारदासाओ, पावेंति सासयं सुहं सिद्धि ति । ता एवंविहेसु वि पओसो गुणओस भावे नाइ सम्मत्तं जणेइ अन्नाणं, चालेइ साहुकिरियं । तओ य से जीवे तहाविह ५.३० - हन्त किमेतद्' इति । विज्ञतानि च्यवन लिङ्गानि, विषण्णो हृदयेन, विद्वाणः परिजन, विलपितमप्सरोभिः । ततः किमनेन मोहचेष्टितेन पृच्छामि तावद् भगवन्तं पद्मनाभं तीर्थंकरम्, कुत्र मे उपपातः, सुलभबोधिको वा न वा' इति समागतः पूर्वविदेहम् । प्रणतस्त्रैलोक्यनाथः पृष्टश्च । शिष्टं भगवता - उपपातस्ते जम्बूद्वीपदक्षिणार्धभरते कौशाम्ब्यां नगर्याम् । दुर्लभोधिकस्त्वम् । संचितं त्वया गुरुप्रद्व ेषेण अनेन प्रकारेणाबोधिबीजम् । निःशेषमाख्यातः पूर्वभवव्यतिकरः । ततस्तेन चिन्तितम् - हन्त एतावन्मात्रस्यापि गुरुप्रत्यनीकभावस्य दारुणो विपाक इति । भगवता भणितम् - भो देवानुप्रिय ! नैष स्तोकः । इह खलु इहलोकोपकार्यपि कृतज्ञ ेन बहु मानयितव्यः, किमङ्ग पुनः परलोकोपकारी । परलोकोपकारिणश्च गुरवः, यतः स्फेटयन्ति मिथ्यात्वव्याधिम्, प्रणाशयन्ति अज्ञानतिमिरम्, स्थापयन्ति परम पदाधिकायां क्रियायाम्, चोदयन्ति स्खलितेषु, संस्तुवन्ति (प्रशंसन्ति) गुण रत्नानि । एवं च देवानुप्रिय ! मोचयन्ति जन्मजरामरण रोगशोक बहुलात्संसारवासात्, प्रापयन्ति शाश्वतं सुखं सिद्धिमिति । तत एवंविधेष्वपि प्रद्वेषो गुणप्रद्वेषभावेन नाशयति सम्यक्त्वम् जनयत्यज्ञानम्, यह क्या है ? च्युत होने के चिह्नों को जाना, हृदय से दुःखी हुआ, परिजनों ने जागृत किया, अप्सराओं ने विलाप किया । तब इस मोहचेष्टा से क्या लाभ ? भगवान् पद्मनाथ तीर्थंकर से पूछता हूँ, मैं कहाँ उत्पन्न होऊँगा, मुझे ज्ञान सुलभ होगा या नहीं ? वह पूर्वविदेह क्षेत्र में आया। उसने त्रिलोकीनाथ को नमस्कार किया और पूछा । भगवान् ने कहा -- " जम्बूद्वीप के दक्षिणार्द्ध भरत की कौशाम्बी नगरी में उत्पन्न होगे। तुम्हें बोधि प्राप्त होना कठिन है | गुरु के प्रति द्वेष के कारण तुमने अज्ञानरूपी बीज का संचय किया है ।" पूर्वभव के सम्बन्ध में पूर्ण रूप से कहा। तब उसने सोचा- गुरु के प्रति इतने से विपरीत भाव रखने का दारुण फल होता है । भगवान् ने कहा - "यह थोड़ी बात नहीं है । इस संसार में जो उपकार करता है, उसके प्रति कृतज्ञ होकर उसे बहुत सत्कार देना चाहिए, किन्तु जो परलोक के प्रति भी उपकारी है, उसके विषय में तो कहना ही क्या ! गुरु परलोक सम्बन्धी उपकार करने वाले होते हैं, क्योंकि मिथ्यात्व रूपी व्याधि को नष्ट कर देते हैं, अज्ञान रूपी अन्धकार को नष्ट करते हैं, परमपद की साधक क्रियाओं में स्थापित करते हैं, स्खलित होते हुए लोगों को प्रेरणा देते हैं, गुणरत्नों की प्रशंसा करते हैं । इस प्रकार हे देवानुप्रिय ! सद्गुरु जन्म, जरा, मरण, रोग, शोक की जिसमें अधिकता है ऐसे ससारवास से छुड़ा देते हैं, शाश्वत सुख की सिद्धि को प्राप्त करा देते हैं । ऐसे व्यक्ति के प्रति द्वेष रखना प्रति द्वेष रखना है, इससे सम्यक्त्व का नाश होता है, अज्ञान उत्पन्न होता है, साधु-क्रियाओं में चंचलता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy