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[ समराइच्चकहा
से चेल्लओ, सियाणि कुलागि बारिओ य जेणं एवं पडणोयगेह; मा पविसेज्जसु' त्ति भणिऊण नियत्तो चेल्लओ, पबिट्टो य एसो पढममेव कुमारगेहं । महया सद्देण धम्मलाहियमणेणं । तं च दण भीयामओ अंतेउरियाओ। 'हा कटठं, इसी कयस्थिज्जिस्सह' त्ति चितिऊण सन्निओ य णाहि लह निग्गच्छसुति। तओ अवहीरिऊण बहिराविडं च काऊण महया सद्देण धम्मलाहियमणं । एत्यंतरम्मि धम्मलाहसहं सोऊण हम्मिक्तलाओ पहट्ठमुहपंकथा समागया कुमारया। ढक्कियं दुवारं। अइसएणं वंदिओ हि साहू । कसं धम्मलाहणं । भणिओ य णेहि - भो पन्वइयगा, 'नच्चसु ति। तेण मणियं-कहंगीयवाइएण विणा नच्चामि । कुमारेहि भणियं-अम्हे गोयवाइयं करेमो । साहुणा भणियं . 'संदरं' त्ति । विसमतालं कयं गीयवाइयमणेहिं । अकुद्धो वि हियएणं कुद्धो साहू । भणियं च जेण-अरे रे गोवालदारया, इमिणा विन्नाणेण ममं नच्चावेह त्ति । एवं सोऊण कुविया कुमारा, साहताडणनिमित्तं च धाविया अभिमहं । तेण विय 'न अन्नो उवाओ' ति कलिऊण करुणापहाणचित्तण निज्जद्धवावारकुसलेणं सणियं चेव घेत्तण सव्वसंधीसु विओइओ एक्को। तओ धाविओ
कुलानि, वारितश्च तेन ‘एतत्प्रत्यनीकगेहम्, मा प्रविश' इति भणित्वा निवृत्तः शिष्यः । प्रविष्टश्चैष प्रथममेव कुमारगेहम् । महता शब्देन धर्मलाभितमनेन । तं च दृष्ट्वा भीता अन्तःपुरिकाः । 'हा कष्टम, ऋषिः कदर्थयिष्यते' इति चिन्तयित्वा संज्ञितश्च ताभिः ‘लघु निर्गच्छ' इति । ततोऽवधीर्य बधिरवृत्तितां (?) च कृत्वा महता शब्देन धर्मलाभितमनेन । अत्रान्तरे धर्मलाभशब्दं श्रुत्वा हर्म्यतलात् प्रहृष्टमुखपङ्कजौ समागतौ कुमारौ । स्थगितं द्वारम् । अतिशयेन वन्दितस्ताभ्यां साधुः । कृतं धर्मलाभनम् । भणितश्च ताभ्याम्-'भो प्रव्रजितक ! नृत्य' इति । तेन भणितम्-कथं गीतवाद्येन विना नृत्यामि । कुमारैर्भणितम्-आवां गीतवाद्यं कुर्वः । साधुना भणितम् ‘सुन्दरम्' इति । विषमतालं कृतं गीतवाद्यमाभ्याम् । अक्रुद्धोऽपि हृदयेन क्रुद्धः साधुः । भणितं च तेन- अरेरे गोपालदारको ! अनेन विज्ञानेन मां नर्तयतमिति । एतच्छ त्वा कुपितौ कुमारौ, साधुताडननिमित्तं च धाविताबभिमुखम् । तेनापि च 'नान्य उपायः' इति कलयित्वा करुणाप्रधानचित्तेन नियुद्धव्यापारकुशलेन शनैरेव गृहीत्वा सर्वसन्धिषु वियोजित एकः । ततो धावितो द्वितीय, सोऽपि तथैव । ततो
'साधू के विरोधी का यह घर है, प्रवेश मत करो।' ऐसा कहकर शिष्य लौट गया। यह पहले ही कुमार के घर में प्रविष्ट हुआ । इसने ऊँचे शब्द से धर्मलाभ दिया। उसे देखकर अन्तःपुरिकायें भयभीत हुईं। हाय कष्ट है, ऋषि का तिरस्कार किया जायेगा । ऐसा सोचकर उन्होंने साधु को संकेत किया- 'जल्दी निकल जाओ।' तब सुनकर बहरा बनकर ऊँचे स्वर से इसने धर्मलाभ दिया। इसी बीच धर्मलाभ सुनकर महल के भीतर से दो कुमार आये। उनके मुखकमल खिले हुए थे। द्वार को बन्द कर दिया। उन दोनों ने साधु की खूब पूजा-अर्चना की। धर्मलाभ लिया। उन दोनों ने कहा- "हे संन्यासी ! नाचो।" उसने कहा-"गीत-वाद्य के बिना कैसे नृत्य करूं ?" कुमारों ने कहा- "हम दोनों गाना बजाना करते हैं।" साधु ने कहा-"ठीक है।" इन दोनों ने विषमताल वाला गीत वाद्य किया। हृदय से क्रुद्ध न होने पर भी साधु क्रुद्ध हो गया। उसने कहा- "अरे ग्वाल-बालो ! इस विज्ञान के द्वारा मुझे नचाते हो ?" इसे सुनकर कुमार कुपित हो गये । साधु को पीटने के लिए दोनों सामने बढ़े । उसने 'अन्य कोई उपाय नहीं है' ऐसा मानकर करुणाप्रधान चित्त से युद्ध कार्य में कुशल होने के कारण धीरे से पकड़ कर समस्त गाँठों को अलग कर दिया। तब दूसरा दौड़ा। उसकी भी वही गति हुई। तब द्वार खोलकर साधु
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