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छट्ठो भवो ]
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बुद्ध एसो । खओवसममुवगयं चारितमोहणीयं । तओ माइंदजालसरिसं जीवलोयमवगच्छिय पव्वइओ एसो । करेइ तवसंजमुज्जोयं । अन्नया य गुरुपायमूलम्मि अहासंजमं विहरमाणो गओ तगरासन्निवेसं । एत्यंतरम्मि समागया तत्थ उज्जेगीओ राहायरियस्स अंतेवासिणो अज्जराहुखमासमणसंतिया गुरुसमोवं साहुगो त्ति । कथा से से उचियपडिवत्ती । पुच्छिया निरुवसग्गविहार मुज्जेणीए । कहिओ यहि सुंदविहारो; केवलं रायपुत्तो पुरोहियपुत्तो य अभद्दया, ते जहोवलद्धीए खलियारेति साहुणो, तन्निमित्तो उवसग्गो त्ति । तओ एयमायण्णिय चितियमवराजिएण । अहो पमत्तया समरउणो, जेण परियणं पि न नियमेइ । ता अणुन्नविय गुरुं गच्छामि अहमुज्जणि । उवसामेमि ते कुमारे, मा संचिगंतु अबाहिमूलाई । संसारबद्धणे य साहुपओसो । अत्थि मे तदुवसामणसत्ती । ओ अणुवि गुरुं पेसिओ गुरुणा समागओ उज्जेण, पविट्ठो य अज्जराहुखमासमणगच्छे । कयं से उचिपकरणिज्जं । समागया भिक्खावेला । पट्टो एसो । भणिओ य साहूहि पाहुण्या तुब्भे, ता अच्छहति । तेण भणिधं न अच्छामि, अत्तलद्धिओ अहं, नवरं ठवणकुलाईणि दंसेह । तओ दिन्नो
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मुपगतं चारित्रमोहनीयम् । ततो मायेन्द्रजालसदृशं जीवलोकमवगत्य प्रव्रजित एषः । करोति तपःसंयमोद्योगम् । अन्यदा च गुरुपादमूले यश्चासंयमं विहरन् गतस्तगरासन्निवेशम् । अत्रान्तरे समागतस्तत्रोज्जयिन्या राहाचार्यस्यान्तेवासिन आर्य राहुक्षमाश्रमणसत्का गुरुसमीपं साधव इति । कृता तेषामुचितप्रतिपत्तिः पृष्टा निरुपसर्गविहारमुज्जयिन्याम् । कथितस्तैः सुन्दरो विहारः, केवलं राजपुत्रः पुरोहितपुत्रश्वाभद्रको तौ यथोपलब्ध्या खलीकुरुत. ( उपद्रवतः ) साधून्, तन्निमित्त उपसर्ग इति । तत एतदाकर्ण्य चिन्तितमपराजितेन । अहो प्रमत्तता समरकेतो, येन परिजनमपि न नियमयति । ततोऽनुज्ञाप्य गुरुं गच्छाम्यहमुज्जयिनीम् । उपशमयामि तौ कुमारौ, मा सञ्चिन्वातामबोधिमूलानि । संसारवर्धने च साधुप्रद्वेषः । अस्ति मे तदुपशमनशक्तिः ततोऽनुज्ञाप्य गुरु प्रेषितो गुरुणा समागत उज्जयिनीम्, प्रविष्टश्चार्य राहु क्षमाश्रमणगच्छे । कृतं तस्योचितकरणीयम् । समागता भिक्षावेला । प्रवृत्त एषः । भणितश्च साधुभिः । प्राघूर्णका यूयम्, तत आध्वमिति । तेन भणितम् -- न आसे, आत्मलब्धिकोऽहम्, नवरं स्थापनाकुलादीनि दर्शयत । ततो दत्तस्तस्य शिष्यः, दर्शितानि
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हुआ । चारित्रमोहनीय के क्षोपगम को प्राप्त हुआ। तब जीवलोक को मायामयी इन्द्रजाल के समान जानकर इसने दीक्षा धारण कर ली । संयम और तप में उद्योग किया। एक बार गुरु के चरणों में रहकर संयमपूर्वक विहार करते हुए 'नगरा' (कोंकण ) सन्निवेश को गया । इसी बीच उज्जयिनी से आचार्य राहु के शिष्य साधु जन क्षमाश्रमण के साथ गुरु के समीप आये। उनसे उचित जानकारी प्राप्त की। पूछा - "उज्जयिनी में विहार करने में कोई बाधा तो नहीं है ?" उन्होंने कहा - "विहार सुन्दर है, केवल राजपुत्र और पुरोहित का पुत्र 'अभद्रक' ये दोनों साधुओं को पीड़ित करते हैं। उनके कारण ही उपसर्ग है ।" इसे सुनकर अपराजित ने सोचा - अहो समरकेतु का . प्रमाद, जो सेवकों पर भी नियन्त्रण नहीं करता है । तब गुरु से आज्ञा ली कि मैं उज्जयिनी जाता हूँ । उन दोनों कुमारों को शान्त करता हूँ । अज्ञान के बीज न फैलें । साधुओं के प्रति द्वेष करना संसारवर्द्धक है। मेरे अन्दर इसे रोकने की शक्ति है। तब गुरु से आज्ञा लेकर गुरु के द्वारा भेजा जाकर उज्जयिनी आया और आर्य राहु क्षमाश्रमण के गच्छ में प्रविष्ट हुआ । उसके योग्य कार्य किया । आहार का समय आया । यह (भोजन करने) प्रवृत्त हुआ । साधुओं ने कहा - "आप लोग अतिथि हैं, अतः आप बैठिए ।" उसने कहा- 'मैं नहीं बैठूंगा, क्योंकि मैं आत्मोपलब्धि वाला हूँ, केवल स्थापनाकुल आदि को दिखाइए ।" तब इसने शिष्य दिया, कुलों को दिखाया । उसने मना किया -
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