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________________ ५२४ [समरा इच्चकहा बोहो। ता पसंसेमि एवं साहेमि य इमस्स इमीए दुल्लहत्तणं, जेण वयंसगाण वि से संबोहो समप्पज्जइ । भणियं च णेण वच्छ, धन्नो तुमं, नायं तए जाणियव्वं, संपत्ता सयललोयदुल्लहा' जिणधम्मबोही। ता जहटियासेवणेण एवं चेव सफलं करेहि, संसिज्झइ य तुह समोहिय । न खलु अणभत्थनिरइयारकुसलमग्गा एवंविहा हवंति, अवि य अपरमत्थपेच्छिणो विसयलोलया य। एयवइयरं च मिसुणेहि मे चरियं । धरणेण भणियं 'कहेउ भयवं' । अरहदत्तायरिएण भणियं-सुण । अत्थि इहेव वासे अयलउरं नाम नयरं । तत्थ जियसत्तू राया, पुत्ता' य से अवराजिओ समरकेऊ य । अवराजिओ जवराया, इयरो य कुमारो। दिन्ना इमस्स कुमारभुत्तीए उज्जेणो । एवं च अइक्कतो कोइ कालो । अन्नया य विथक्को समरकेसरी नाम पच्चंतनरवई । तओ अवराजिओ तप्पसाहणनिमित्तं गओ। पसाहिओ य एसो आगच्छमाणेण य मुत्तिमंतो विय पण्णोदओ संपत्तो इमेण धम्मारामसन्निवेसे सयलमणोरहचितामणो राहो नाम आयरिओ त्ति । तं च दठ्ठण समप्पन्नो एयस्स संवेगो । पुच्छिओ ण जहाविहीए धम्मो। कहिओ भयवया जहोवइट्ठो परमगुरूहि । पडिधर्मबोधिः, ततः प्रशंसाम्येतम्, कथयामि चास्मै अस्या दुर्लभत्वम्, येन वयस्यानामपि तस्य सम्बोध: समुत्पद्यते । भणितं च तेन-वत्स ! धन्यस्त्वम्, ज्ञातं त्वया ज्ञातव्यम्, सम्प्राप्ता सकललोकदुर्लभा जिनधर्मबोधिः । ततो यथास्थितासेवनेन एतामेव सफलां कुरु, संसिध्यति च तव समीहितम् । न खल्वनभ्यस्तनिरतिचारकुशलमार्गा एवंविधा भवन्ति, अपि चापरमार्थप्रेक्षिणो विषयलोलुपाश्च । एतव्यतिकरं च निशृणु मे चरितम् । धरणेन भणितं-कथयतु भगवान् । अर्हद्दत्ताचार्येण भणितं-शृणु। अस्तीहैव वर्षे अचलपुरं नाम नगरम् । तत्र जितशत्रू राजा, पुत्रौ च तस्य अपराजितः समरकेतुश्च । अपराजितो युवराजः, इतरश्च कुमार: दत्ताऽस्य कुमारभक्त्यां उज्जयिनी । एवं चातिक्रान्तः कोऽपि कालः । अन्यदा च (वित्थक्को दे०) विरुद्धः समरकेसरी नाम प्रत्यन्तनरपतिः । ततोऽपराजितस्तत्प्रसाधननिमित्तं गतः । प्रसाधितश्चेषः । आगच्छता च मूर्तिमानिव पुण्योदयः संप्राप्तोऽनेन धर्मारामसन्निवेशे सकलमनोरथचिन्तामणी राहो नामाचार्य इति । तं च दृष्ट्वा समुत्पन्न एतस्य संवेगः । पृष्टोऽनेन यथाविधि धर्मः । कथितो भगवता यथोपदिष्ट: परमगुरुभि: । प्रतिबुद्धश्चैषः । क्षयोपशमलिया, जैनधर्म का ज्ञान उत्पन्न हुआ, अतः इसकी प्रशंसा करता हूं, इससे इसकी (ज्ञान की) दुर्लभता कहता हूँ, जिससे इसके मित्रों को भी बोध उत्पन्न हो। उन्होंने कहा- "वत्स ! तुम धन्य हो, तुमने ज्ञेय को जान लिया, समस्त प्राणियों को जो दुर्लभ है ऐसी जिनधर्म बोधि को तुमने प्राप्त कर लिया है। अतः यथास्थित का सेवन करते हुए इसी को सफल करो। आपका इष्ट कार्य पूरा हो । अतीचाररहित शुभ मार्ग का अभ्यास किये बिना लोग इस प्रकार नहीं होते, अपितु परमार्थ को न देखने वाले और विषयों के लोलुपी होते हैं। इसके विपरीत मेरे चरित को सुनो।" धरण ने कहा -“कहिए भगवन् !" अर्हद्दत्त आचार्य ने कहा- "सुनो ! - इसी भारतवर्ष में अचलपुर नाम का नगर है। वहाँ पर जितशत्रु राजा था। उसके समरकेतु और अपराजित नाम के पुत्र थे। अपराजित युवराज था, दूसरा कुमार। इसने कुमार के उपभोग के लिए उज्जयिनी दे दी। इस प्रकार कुछ समय बीत गया। एक बार 'समर केसरी' नामक सीमावर्ती राजा विरुद्ध हो गया । तब अपराजित उसको समझाने के लिए गया । वह मान गया । आते हुए उसने शरीरधारी पुण्योदय के समान धर्मोद्यान में समस्त मनोरथों के लिए चिन्तामणिस्वरूप राहु नामक आचार्य को देखा। उन्हें देखकर इसे वैराग्य उत्पन्न हो गया । इसने यथाविधि धर्म के विषय में पूछा । भगवान् ने, जैसा परमगुरुओं ने कहा था, वैसा कहा । यह जागृत १. ते लोकदु-क।'. भारहे वासे । ३. पुत्तः य-क-ख । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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