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________________ छड्ने भयो ५२३ चिन्तिका आसयपरिक्खणनिमित्तं जंपियं अरहयत्तेणं। वन्छ, परिचत्तसिहासमेणं निम्नच्छिणा विनियविसवलालसाइं इंदियाई विज्झविय' कसायाणलं निरीहेणं चित्तेणं सयलसोक्खनिहाणभूओ संजमो काययो। अन्नहा परिचत्तो वि अपरिचत्तो गिहासमो ति। सो पुण अणाइबिसयमावणाभावियस्स जोवस्त अञ्चंतदुक्खयरो। पवज्जिऊण वि एवं पुवकयकम्मदोसेण केइ न तरंति परिवालिङ, मुज्झति निययकज्जे, परिकप्पेंति' असयालंबणाई; विमुक्कसंजमा म ते, आउसो, न मिहीन पव्वइयगा उभयलोगबिहलं नासति' मणुयत्तणं । एवं ववत्थिए अमुणिऊण हेमोवाएवाइं अतुलिऊणमप्पाच्वयं न जुत्तो गिहासमपरिच्चाओ ति। धरणेण भणियं - एवमेयं, जं तुम्भे आगवेह । कि तु हेओ गिहासमो मे बुद्धी समणतणं उवाएयं । तुलणा वि पिबेगो रिचय किलेसवसयाण सत्ताणं ।। ५५२ ।। भयक्या चितियं । अहो से सउण्णया, मुणिओ ण जहटिओ संसारो, समप्पन्ना जिणधम्म. इति चिन्तयित्वा आशयपरीक्षणनिमित्तं जलपितमर्ह इत्तेन-वत्स ! परित्यक्तगृहाश्रमेण निर्भर्त्य निजनिजविषयलालसानीन्द्रियाणि विध्याप्य कषायानलं निरीहेन चित्तेन सकलसौख्यनिधानभूतः संयम: कर्तव्यः। अन्यथा परित्यक्तोऽप्यपरित्यक्तो गृहाश्रम इति । स पुनरनादिविषयभावनाभावितस्य जीवस्यात्यन्तदुःखकरः । प्रपद्याप्येतं पूर्वकृतकर्मदोषेण केऽपि न शक्नुवन्ति परिपालयितुम, मुह्यन्ति निजकार्ये, परिकल्पयन्त्यसदालम्बनानि, विमुक्तसंयमाश्च ते आयुष्मन् ! न गृहिणो न प्रवजितका उभयलोकविफलं नाशयन्ति मनुजत्वम् । एवं व्यवस्थितेऽज्ञात्वा हेयोपादेयानि अतोलयित्वाऽऽत्मानं न युक्तो गृहाश्रमपरित्याग इति । धरणेन भणितम्-एवमेतद्, यद् यूयमाज्ञापयत। किन्तु हेयो गृहाश्रमो मे बुद्धिः श्रमणत्वमुपादेयम्। तुलनाऽपि विवेक एव क्लेशवशगानां सत्त्वानाम् ।। ५५२ ॥ भगवता चिन्तितम् --अहो तस्य सपुण्यता, ज्ञातोऽनेन यथा स्थितः संसारः, समुत्पन्ना जिनआश्चर्ययुक्त है --ऐसा सोचकर अभिप्राय की परीक्षा के लिए अहर्दत्त ने कहा- "वत्स ! गृहाश्रम का परित्याग कर, अपने-अपने विषय के प्रति लालसायुक्त इन्द्रियों की भर्त्सना कर, कषायरूपी अग्नि को बुझाकर, निरभिलाष चित्त से-समस्त सुखों का जो खजाना है ऐसे संयम का पालन करना चाहिए, अन्यथा परित्यक्त गृहाश्रम भी अपरित्यक्त के तुल्य है, आदिकाल से जिसने विषय-भावनाओं का चिन्तन किया है, ऐसे जीवों के लिए वह अत्यन्त दुःखकर है। गहाश्रम को त्यागकर भी पुरुष पूर्व जन्म में किये हए कर्मों के दोष के कारण पालन नहीं कर सकते हैं वे अपने ही कर्मों में मोहित होते हैं, सदा आलम्बनों की कल्पना करते हैं और हे आयुष्मान् ! वे संयम को छोड़ देते हैं । ऐसे लोग न तो गृही होते हैं, न संयमी होते हैं, इस प्रकार उभयलोक में विफल होकर मनुजपने का नाश करते हैं । ऐसी स्थिति में हेयोपादेय के ज्ञान बिना, अपने आपको तोले बिना, गृहाश्रम का छोड़ना उचित नहीं है ।" धरण ने कहा-"जो आप आज्ञा दें । किन्तु मेरा विचार है कि गृहाश्रम छोड़ने योग्य है और श्रमणत्व (मुनिदीक्षा) ग्रहण करने योग्य (उपादेय) है । क्लेश के वशीभूत हुए प्राणियों की तुलना भी विवेक ही है" ॥ ५५२ ॥ भगवान् ने विचार किया-इसका पुण्य आश्चर्यकारक है जो कि इसने संसार को जैसा का तैसा ही जान १. विवज्जिय-क । २. परिगप्पेंतिक । ३. नयंति-क। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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