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[समराहकहा
नियमा तत्थारंभो आरंभेणं च वड्ढई' हिंसा। हिंसाए कओ धम्मो न देसिओ सत्थयारेहिं ।। ५४७ ॥ पज्जंते वि य एसो सम्वेणं चेव जीवलोयम्मि। नियमेणज्झियध्वो ता अलमेएण पावेणं ॥ ५४८ ॥ एवं च चितयंतो पत्तो संजायचरणपरिणामो। गुरुपायमलमणहं संवयसो' निव्वइपुरं व॥५४६ ॥ अह वंदिओ य णं भगवं सवयंसएण साहू य। तेहि चिय धम्मलाहो दिन्नो सम्वेसि विहिपुत्वं ॥ ५५०॥ उवविट्ठा य सुविमले मुणोण पुरओ उ उववणुच्छंगे।
अह पच्छिया य गुरुणा कत्तो तुब्भे ति महरगिरं॥ ५५१ ।। एवं च पुन्छिए समाणे जंपियं धरणेण भयवं, इओ चेव अम्हे । अन्नं च; अस्थि मे गिहासमपरिच्चायबुद्धी। ता आइसउ भयवं, जं मए कायध्वं ति । तओ 'अहो से आगिई, अहो विवेगों' ति
नियमात्तत्रारम्भ आरम्भेण च वर्धते हिंसा। हिंसया कृतो धर्मो न देशित: शास्त्रकारैः ।। ५४७ ।। पर्यन्तेऽपि चैषः सर्वेणैव जीवलोके। नियमेनोज्झितव्यस्ततोऽलमेतेन पापेन ।। ५४८ ॥ एवं च चिन्तयन् प्राप्तः सञ्जातचरणपरिणाम.। गुरुपादमूलमनघं सवयस्यो निर्वृतिपुरमिव ।। ५४६ ।। अथ वन्दितश्च तेन भगवान् सवयस्येन साधवश्च । तैरेव धर्मलाभो दत्तः सर्वेषां विधिपूर्वम् ॥ ५५० ।। उपविष्टाश्च सुविमले मुनीनां पुरतस्तु उपवनोत्सङ्गे।
अथ पृष्टाश्च गुरुणा कृतो युयमिति मधुरगिरा ॥ ५५१ ।। एवं च पृष्ठे र्सा जल्पितं धरणेन -भगवन् ! इत एव वयम् । अन्यच्च, अस्ति मे गृहाश्रमपरित्यागबुद्धिः । तत आदिशतु भगवान्, यन्मया कर्तव्यमिति । ततः 'अहो तस्याकृतिः, अहो विवेकः'
गृहस्थी में नियम से आरम्भ होता है, आरम्भ से हिंसा बढ़ती है। हिंसा से धर्म नहीं होता है, ऐसा शास्त्रकारों ने कहा है। फलस्वरूप समस्त जीवलोक को इसे नियम से छोड़ ही देना चाहिए , इस पाप से कुछ भी लाभ नहीं हैं, ऐसा विचार करते हुए जिसके अन्दर चारित्रधारण करने के भाव उत्पन्न हुए हैं-ऐसा वह मित्रों के साथ गुरु के पादमूल में आया, मानो मोक्षनगरी में आया हो । मित्रों के साथ उसने आचार्य और साधुओं की वनना की । उन्होंने सभी को विधिपूर्वक धर्मलाभ दिया। उद्यान की निर्मल गोद में मुनियों के सामने बैठा। अनन्तर गुरु ने मधुरवाणी में पूछा - आप कहाँ से आये हैं ? ॥ ५४७-५५१ ।।
ऐसा पूछे जाने पर धरण ने कहा- 'भगवन् ! हम लोग यहीं से आये हैं। दूसरी बात यह है कि मैं घर छोड़ना वाहता हूँ, अत: मेरे योग जो विधेय हो उसका आदेश दें।" तब 'इसकी आकृति आश्चर्यकारक है, विवेक
१. बटर-ख । २. हिमाइ क ओ य-क । ३. सवयस्सा-क ।
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