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________________ छठी भवो ] १. सरिसं । दिट्ठो य णेण तहियं फासूप्रदेसम्म वियलियवियारो । सोसगण संपरिवुडो आयरिओ अरहदत्तो त्ति ॥ ५४१ ॥ अच्चतसुद्धचित्तो नाणी विविहतवसोसियसरीरो । निज्जियमयणो वि दढं अगंगसुहसिद्धितलिच्छो ॥ ५४२ ॥ तं पेच्छिऊण चिंता जाया धरणस्स एस लोयम्मि । जीवs सफलं एक्को चत्तो जेणं घरावासो ।। ५४३ ॥ धरिणी अत्यो सयणो माया य पिया य जीवलोयम्मि । माइंदजालसरिसा तहवि जणो पावमायरइ ॥ ५४४ ॥ जा वि उवयारबुद्धी घरिणीपमुहेसु सा वि मोहफलं । मोत्तूण जओ धम्मं न मरणधम्मीणमवयारो ।। ५४५ ।। सो पुण संपाडेउं न तीरए आसवानियतेहि । सर्वाणवित्तो वि य विहासमं आवसंतेहि ॥ ५४६ ॥ दृष्टश्च तेन तत्र प्रासुकदेशे विगलितविकारः । शिष्यगणसम्परिवृत आचार्यो द्दत्त इति ।। ५४१ ।। अत्यन्तशुद्धचित्तो ज्ञानी विविधतपः शोषितशरीरः । निर्जितमदनोऽपि दृढमनङ्गसुखसिद्धितत्परः ।। ५४२ ।। तं प्रेक्ष्य विन्ता जाता धरणस्यैष लोके । जीवति सफल मेकस्त्यक्तो येन गृहावासः ।। ५४३ ।। गृहिणी अर्थ: स्वजनो माता च पिता च जीवलोके । मायेन्द्रजालसदृशास्तथापि जनः पापमाचरति ।। ५४४ ॥ याऽपि उपकार बुद्धिः गृहिणीप्रमुखेषु सापि मोहफलम् । मुक्त्वा यतो धर्मं न मरणधर्माणामुपकारः ।। ५४५ ।। स पुनः सम्पादयितुं न शक्यते आस्रवानिवृत्तः । आस्रवविनिवृत्तिरपि च गृहाश्रममावसद्भिः ।। ५४६ ॥ उसने उस निर्मल स्थान पर विकारों से रहित, शिष्यगणों से घिरे हुए अर्हद्दत्त नामक आचार्य को देखा । वे अत्यन्त शुद्धचित्त, ज्ञानी थे, अनेक प्रकार के तपों से उनकी देह कृश हो गयी थी, काम को जीत लेने पर भी वे अतीन्द्रिय सुख की सिद्धि में सुदृढ़ रूप से तत्पर थे। उन्हें देखकर धरण ने विचार किया इस संसार में एक व्यक्ति का जीना सफल है, जिसने गृहस्थी को त्याग दिया है । गृहिणी, धन, स्वजन, माता-पिता इस संसार में माया रूप इन्द्रजाल के सदृश हैं, फिर भी मनुष्य पाप का आचरण करता है । गृहणी आदि प्रमुख व्यक्तियों के प्रति जो उपकार की बुद्धि होती हैं वह भी मोह का फल है। धर्म को छोड़कर मृत्युशील प्राणियों का कोई उपकारक नहीं है । कर्मों के आगमन को रोके बिना धर्म का सम्पादन नहीं हो सकता है । गृहाश्रम में रहते हुए सास्रवों को आस्रव से छुटकारा नहीं हो सकता है ।। ५४१-५४६ ।। Jain Education International ५२१ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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