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________________ ५२० [समराइच्चकहाँ निवडिऊण भणियं धरणेण-देव, अलं महंगेहि; कि तु 'माणणीओ देवो' ति करिय पत्थेमि पत्थजोयं । राइणा भणियं-भणाउ अज्जो। तेण भणियं-पयच्छउ देवो नियरज्जे सव्वसत्ताणं बंदिमोक्खणं' सव्वसत्ताणमभयप्पयाणं च। तओ अहो से महाणभावया, अहो महापरिसचेट्ठियं सत्थवाहपुत्तस्स' त्ति भणिऊण आणतो पडिहारो। हरे कारवेहि चारयघंटपओएण मम रज्जे संपलबंदिमोक्खं, सव्वसत्ताणमभयपयाणं च दवावेहि ति। तओ जं देवो आणवेइ' त्ति भणिऊण संपाडियं देवसासणं । सप्पुरिसचेद्विएण य परितुट्ठा से जणणिजणया। परिओसवियसियछेहि कयमणेहिं राइणो उचियं करणिज्जं । तओ धरणेण सह कंचि वेलं गमेऊण निग्गओ राया। धरणो वि चिरयाल मिलियवयंसयसमेओ गओ मलयसुंदराभिहाणं उज्ाणं। उवलद्धो य नागलयामंडवम्मि कोलानिमित्तमागओ कुवियं पियपणइणि पसायंतो रेविलगो नाम कुलउत्तगो सुमरियं लच्छोए। चितियं च णेणं । अहो गु खलु एवमपरमत्थपेच्छीणि कामिजगहिययाइं हवंति । समागओ संवेगं । गओ य उज्जाणेक्कदेससंठियं असोयवीहियं ।। राज्ञा । ततश्चरणयोनिपत्य भणितं धरणेन -देव ! अलं मुद्राङ्कः, 'किन्तु माननीयो देवः' इति कृत्वा प्रार्थये प्रार्थनीयम् । राज्ञा भणितम्--भणत्वार्यः । तेत भणितम् -प्रयच्छतु देवो निजराज्ये सर्वसत्त्वानां बन्दिमोक्षणं सर्वसत्त्वानामभयप्रदानं च। ततः 'अहो तस्य महानुभावता, अहो महापुरुषचेष्टितं सार्थवाहपुत्रस्य' इति भणित्वा आज्ञप्तः प्रतीहारः। अरे कारय चारक घण्टाप्रयोगेण मम राज्ये सकलबन्दिमोक्षम्, सर्वसत्त्वानामभयप्रदानं च दापयेति। ततो 'यद देव आज्ञापयति' इति भणित्वा सम्पादितं देवशासनम् । सत्पुरुषचेष्टितेन च परितुष्टौ तस्य जननीजनको। परितोषविकसिताक्षाभ्यां कृतमाभ्यां राज्ञ उचितं करणीयम् । ततो धरणेन सह काञ्चिद् वेलां गमयित्वा निर्गतो राजा। धरणोऽपि चिरकालमिलितवयस्यसमेतो गतो मलयसुन्दराभिधानमुद्यानम् । उपलब्धश्च नागलतामण्डपे क्रीडानिमित्तमागतः कुपितां प्रियप्रणयिनी प्रसादयन् रेविलको नाम कुलपुत्रकः । स्मृत लक्ष्म्याः । चिन्तितं च तेन-अहो नु खल्वेवमपरमार्थप्रेक्षीणि कामिजनहृदयानि भवन्ति । समागतः सवेगम । गतश्च उद्यान कदेशसंस्थितामशोकवीथिकाम् । प्रशस्तिपत्र रहने दीजिए, किन्तु महाराज माननीय हैं, अतः एक प्रार्थना करता हूँ।" राजा ने कहा-"आर्य कहें।" उसने कहा-"महाराज ! प्रशस्तिपत्र रहने दीजिए, किन्तु महाराज माननीय हैं, अतः एक प्रार्थना करता हैं।" राजा ने कहा-"आर्य कहें ! उसने कहा-महाराज! अपने राज्य के समस्त बन्दियों को मुक्ति और समस्त जीवों को अभयप्रदान करने की आज्ञा दें।" तब 'इसकी महानुभावता आश्चर्यजनक है, सार्थवाहपुत्र की महापुरुष के सदश चेष्टा आश्चर्ययुक्त है'---ऐसा कहकर द्वारपाल को आज्ञा दो-"अरे, जेल का घण्टा बजवाकर मेरे राज्य के समस्त बन्दियों को मुक्त कराया जाय तथा समस्त प्राणियों को अभयदान दिलाया जाय ।" तब 'जो महाराज आज्ञा दें' -कहकर महाराज की आज्ञा सम्पादित हुई। सत्पुरुष के अनुरूप क्रिया करने के कारण माता-पिता सन्तुष्ट हुए। सन्तोष से विकसित नेत्रोंवाले इन दोनों ने राजा के योग्य कार्य किया। तब धरण के साथ कुछ समय बिताकर राजा चला गया। धरण भी बहत दिनों बाद मिले हए मित्रों के साथ मलयसुन्दर नाम के उद्यान में गया। नागलतामण्डप में क्रीड़ा के निमित्त आया हआ रावलक नामक कूलपूत्र मिला, जो कि अपनी कूपित प्रेमिका को मना रहा था। लक्ष्मी की स्मात हा आयी। उसने सोचा - अहो! कामिजनों के हृदय इस तरह परमार्थ को न जानने वाले होते हैं । कुछ मन में उदासीनता आयी और वह उद्यान के एक भाग में स्थित अशोक श्रेणी में चला गया । १. बंधण मोक्खं । २. दम्बावेहि त्ति इत्यधिक:-क। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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