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________________ छट्ठो भवो] ५१६ पत्थणा' भणमाणेण टोप्पसेटिणा । तओ बहुमन्निओ सेटिणा मया सत्थेण समागओ निययनर्यारं । आवासिओ बाहिं । जाओ लोयवाओ, जहा आगओ धरणो ति। निग्गओ राया पच्चोणि। पवेसिओ ण महाविभूईए । नेऊण निययभवणं, पूइओ मज्जणाइणा नियाभरणपज्जवसाणमुवयारप्पयाणेणं । गओ निययभवणं । तुट्ठा य से जणिजगया। विइण्णं महादाणं, कया सव्वाययणेसु पया। अइक्कंता काइ वेला। तओ उवणिमंतिय' महारायं पूइओ अणेण सविसेसं। सम्माणिया य जहारहपडिवत्तीए पउरचाउवेज्जाइया, पडिपूइओ य तेहिं । तओ पुच्छिओ जणणिजणएहि-वच्छ, अवि कहिं ते घरिणि त्ति ।धरणेण भणियं-अलं तीए कहाए । चितियं च णेहिं । हंत कयं तीए, जं इत्थिउचियं । ता अलं इमस्स मम्मघट्टणेण इमिणा जंपिएणं । अन्नओ अवगच्छिसं ति । एत्थंतरम्मि महापरिसयाखित्तहियओ विम्हयवसेणुप्फुल्ललोयणो कवमुइंगसासणावणनिमित्तं पुणो वि धरणसमीवं समागओ राया। कओ धरणेण समुचिओवयारो। पुच्छिओ य आगमणपोयणं । सिट्टो से निययाहिप्पाओ राइणा । तओ चलणेसु अनागतमेव' उत्थापितो धरणी 'वत्स ! प्रतिपन्ना ते प्रार्थना' भणता टोप्पश्रेष्ठिना। ततो बहुमानितः श्रेष्ठिना महता सार्थेन समागतो निजनगरीम् । आवासितो बहिः । जातो लोकवादः, यथा आगतो धरण इति । निर्गतो राजा (पच्चोणी दे.) सन्मुखम् । प्रवेशितस्तेन महाविभूत्या, नीत्वा निजभवनं पूजितो मज्जनादिना निजाभरणपर्यवसानोपचार-प्रदानेन । गतो निजभवनम् । तुष्टौ च तस्य जननीजनको। वितीर्णं महादानम् । कृता सर्वायतनेषु पूजा । अतिक्रान्ता कापि वेला। तत उपनिमन्त्र्य महाराजं पूजितोऽनेन सविशेषम् । सन्मानिताश्च यथार्हप्रतिपत्त्या पौरचातुविद्यादयः, प्रतिपूजितश्च तैः । ततः पृष्टो जननीजनकाभ्याम्-वत्स ! अपि कुत्र ते गृहिणीति । धरणेन भणितम् - अलं तस्याः कथया। चिन्तितं ताभ्याम्- हन्त कृतं तया यत् स्त्र्युचितम् । ततोऽलमस्य मर्मघट्टनेनानेन जल्पितेन । अन्यतोऽवगमिष्याव इति । अत्रान्तरे महापुरुषताक्षिप्तहृदयो विस्मयवशेनोत्फुल्ललोचनः कृतमुद्राङ्कशासनार्पणनिमित्तं पुनरपि धरणसमीपं समागतो राजा । कृतो धरणेन समुचितोपचारः। पृष्टश्चागमनप्रयोजनम् । शिष्टस्तस्य निजाभिप्रायो टोप्पश्रेष्ठी ने कहा। तब श्रेष्ठी के द्वारा सम्मान पाकर सार्थ के साथ अपनी नगरी को आया। बाहर डेरा डाला। लोगों में यह बात फैल गयो कि धरण आ गया है। राजा सन्मुख आया । उसे बड़े ठाठबाट से प्रवेश कराया, अपने भवन में ले जाकर अभिषेक तथा अपने आभूषण प्रदान आदि सेवा के द्वारा इसका सत्कार किया । (धरण) अपने भवन को गया। माता-पिता सन्तुष्ट हुए। बहुत दान दिया । सभी मन्दिरों में पूजा की। कुछ समय बीत गया। तब इसने महाराज को निमन्त्रित कर उनको विशेषरूप से पूजा । नगर के विद्वानों का सम्मान किया । तब माता-पिता ने पूछा- "बेटे, तुम्हारी गृहिणी कहाँ है ?" धरण ने कहा-"उसकी कथा मत पूछो।" उन दोनों ने सोचा-हाय ! उसने वही किया, जो कि स्त्रियों के योग्य है, अतः पूछकर घाव को नहीं कुरेदना चाहिए। दूसरे लोगों से प्राप्त हो जायेगी। इसी बीच महापुरुषत्व से जिसका हृदय ओतप्रोत था, विस्मय के कारण जिसके नेत्र विकसित थे, ऐसा राजा राज्य की ओर से प्रशस्तिपत्र भेंट करने के लिए धरण के समीप आया। धरण ने समूचित सत्कार किया। आने का प्रयोजन पूछा । राजा ने अपना अभिप्राय बतलाया। तब चरणों में पड़कर धरण ने कहा-"महाराज ! १. उवणिम तियो महाराया-क। २. विजाइया-छ । ३, कहउइंगसेमेणावइनिमित्त-क। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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