SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 68
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [ समराइच्चकहा 'अहो अहं कयत्थो, अहो अहं धन्नो, अहो मम सुजोबियं, अहो मम सुलद्धो जम्मो त्ति, जओ सेवि महाणुभावेण सयलसत्तकप्पतरुकप्पेण तिहुयणचतामणीभूएण वि अहं पत्थिज्जाभि त्ति चितिऊण भणियं टोप्पसेट्ठिणा-वच्छ, जइ वि सकलत्तं सपुत्तपरियणं दासत्तनिमित्तं ममं जाएसि, तहावि अहं तु महापुरिसचेट्ठिएण आकरिसियश्चित्तो न खंडेमि ते पत्थणापणयं । धरणेण भणियंताय, जइ एवं ता देहि तिन्नि वायाओ । ईसि विहसिऊण 'जाय, जो एवं वायं लोप्पइ, सो तिन्नि वि लोप्पयंतो कि केणावि धरिडं पारीयइ' त्ति भणिऊण टोप्पसेट्टिणा कयाओ तिन्नि वायाओ । 'ताय, अणुहीओ' त्ति भणिऊण हेमकुंडल विज्जाहर विदिन्नमहग्धेय पुव्वसमप्पियरयणसहस्सं मग्गिओ टोप्पसेट्टिभंडारिओ । तेण वि य 'जं अज्जो आणवेइ' त्ति भणिऊण समप्पियाइं गहिऊण रयणाई । तओ ताण मज्झे अद्धं गहेऊन टोप्पसेट्ठिस्स चलणपूयं काऊण' पुणो वि णिवडिओ पाएसु 'ताय, एसा सा पत्थण' ति भणमाणो धरणो । तओ 'अह कहं छलिओ अहमणेणं' ति सुइरं चितिऊण 'अगहिए' य faraatrates एसो, निवारिओ' अहं इमिणा अणागयं चेव' उट्ठविओ धरणो 'वच्छ, पडिवन्ना ते न करोति मम प्रणयभङ्गं तातः । ततो हर्षवशोत्फुल्ललोचनेन 'अहो अहं कृतार्थः, अहो अहं धन्यः, अहो मम सुजीवितम्, अहो मम सुलब्धं जन्मेति, यत ईदृशेणापि महानुभावेन सकलसत्त्वकल्पतरुकल्पेन त्रिभुवनचिन्तामणीभूतेनापि अहं प्रार्थ्यो' इति चिन्तयित्वा भणितं टोप्पश्रेष्ठिना वत्स ! यद्यपि सकलतं सपुत्रपरिजनं दासत्वनिमित्तं मां याचसे तथाप्यहं तव महापुरुषचेष्टितेनाकृष्टचित्तो न खण्डयामि ते प्रार्थनाप्रणयम् । धरणेन भणितम् - तात ! यद्येवं - ततो देहि तिस्रो वाचः । ईषद् विहस्य 'जात ! य एकां वाचं लुप्यति स तिस्रोऽपि लुप्यन् किं केनापि धतु पार्यते' इति भणित्वा टोप्पश्रेष्ठिना कृतास्तिस्रो वाचः । ' तात ! अनुगृहीतः' इति भणित्वा हेमकुण्डलविद्याधरवितीर्णमहपूर्व समर्पित रत्नसहस्रं मार्गितः टोप्पश्रेष्ठिभाण्डागारिकः । तेनापि च ' यद् आर्य आज्ञापयति' इति भणित्वा समर्पितानि गृहीत्वा रत्नानि । ततस्तेषां मध्ये अर्धं गृहीत्वा टोप्पश्रेष्ठिनश्चरणपूजां कृत्वा पुनरपि निपतितः पादयो 'तात ! एषा सा प्रार्थना' इति भणन् धरणः । ततोऽथ 'कथं छलितोऽहमने ' इति सुचिरं चिन्तयित्वा 'अगृहीते च विलक्षीभविष्यति एषः, निवारितोऽहमनेन कृतार्थ हो गया, मैं धन्य हो गया, मेरा जीना सार्थक हो गया, मेरा जन्म सफल हो गया जो कि समस्त प्राणियों में कल्पवृक्ष, तीनों लोकों में चिन्तामणिरत्न के तुल्य यह महानुभाव भी मुझसे याचना कर रहा है। ऐसा सोचकर टोप्पश्रेष्ठी ने कहा - " वत्स ! यदि तुम पुत्र और पत्नी सहित मुझे दास के रूप में माँगो तो भी आप जैसे महापुरुष के प्रति आकृष्ट चित्तवाला तुम्हारी प्रार्थना का खण्डन नहीं करूँगा ।" धरण ने कहा - " तात ! यदि ऐसा है तो तीन वचन दो ।" कुछ हँसकर 'पुत्र ! जो एक बात को छिपाता है, वह तीन को भी छिपा सकता है, उसे कौन रोक सकता है—ऐसा कहकर टोप्पश्रेष्ठी ने तीन वचनों का वायदा किया । 'तात ! अनुगृहीत हो गया' - ऐसा कहकर हेमकुण्डल विद्याधर के द्वारा दिये गये बहुमूल्य, पहले समर्पित किये गये रत्नों को टोप्पश्रेष्ठी ५१८ भण्डारी से मंगवाया। उसने भी- 'जो आर्य आज्ञा दें' - ऐसा कहकर रत्नों को लाकर समर्पित कर दिया । तब उनमें से आधे लेकर टोप्पश्रेष्ठी के चरणों की पूजा कर पुनः चरणों में पड़ गया - ' तात ! यही वह प्रार्थना है' ऐसा धरण ने कहा । तब 'क्या इसने मुझे छल लिया ? ऐसा बहुत देर सोचकर 'यदि मैं ग्रहण नहीं करूंगा तो यह खिन्न होगा, इसने आगे ही मुझे रोक दिया !' धरण को उठाया - ' वत्स ! तुम्हारी प्रार्थना स्वीकार है, १. करेऊण क । २. अगहीएहि - क । ३. नियाइओक । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy