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________________ छट्ठो भवो ] ५१७ अलंधणीयवयणो तुमं ति; ता तुमं चेव जाणसि । धरणेण भणियं-देवपसाओ त्ति, अणुग्गिहीओ अहं देवेण । राइणा भणियं---भो सत्थवाहपुत्त, गेण्हा हि विययरित्थं । धरणेण भणियं --जं देवो आणवेइ। तो नरिंदपंचउलाहिडिओ सह सुवयणेणं गओ वेलाउलं धरणो, उवगणियं सुवणयं पंचउलेण, समप्पियं धरणस्स। तओ धरणेण भणियं-भो सुक्यण ! परिच्चय विसायं, अंगोकरेहि पोरुसं, देव्योवरोहेग कर स वा खलियं न जायइ ति। अन्नं च, भणिो मए तुज्झ सुवण्णलक्खो, तए पुण महाणुभावत्तणेण अहमेव बहुमन्निओ, न उण सुवण्णलखो। भणियं च तए आसि 'कि सुवण्णलक्खेण, तुम चेव मे बहुमओ' त्ति । अणग्धेयं च एवं संभमवयणं । ता गेण्हाहि संपयं, जं ते पडिहायइ । एवं च भणिओ समाणो लज्जिओ सुवयणो। न जंपियं च ण । तओ दाऊण अट्ट सुवण्णलक्खे संपूइऊण नरवई तओ काउं सयलसुत्थं भंडस्स गओ टोप्पसेटिगेहं । ठिओ कंचि वेलं सह सेट्टिणा। उवगयाए' भोयणवेलाए कयमज्जणा पभुत्ता एए । भुत्तुत्तरकाले य चलणेसु निवडिऊण भणिओ धरणेण टोप्पसेट्ठी-जाएमि अहं किंचि वत्थं तायं, जइ न करेइ मम पणयभंग ताओ। तओ हरिसवसुप्फुल्ललोयराज्ञा । सार्थवाहपुत्र ! न युक्तमेतद्, तथाऽप्यलङ्घनीयवचनस्त्वमिति, ततस्त्वमेव जानासि । धरणेन भणितम् - देवप्रसाद इति, अनुगृहीतोऽहं देवेन। राज्ञा भणितम्-भोः सार्थवाहपुत्र ! गृहाण निजरिक्थम् । धरणेन भणितम्- यद्देव आज्ञापयति । ततो नरेन्द्रपञ्चकुलाधिष्ठितः सह सुवदनेन गतो वेलाकूलं धरणः, उपगणितं सुवर्ण पञ्चकुलेन, समर्पितं धरणस्य । ततो धरणेन भणितम्-भोः सुवदन ! परित्यज विषादम्, अङ्गीकुरु पौरुषम्, दैवोपरोधेन कस्य वा स्खलितं न जायते इति । अन्यच्च भणितो मया तव सुवर्णलक्षम्, त्वया पुनर्महानुभावत्वेनाहमेव बहु मतः, न पुनः सुवर्णलक्षम्। भणितं च त्वयाऽऽसीत 'किं सवर्णलक्षेण, त्वमेव मे बहमत इति । अनर्घ्य चैतत सम्भ्रमवचनम । ततो गृहाण साम्प्रतं यत्ते प्रतिभाति । एवं च भणितः सन लज्जितः सुवदनः । न जल्पितं च तेन । ततो दत्वा अष्टसुवर्णलक्षान् सम्पूज्य नरपति ततः कृत्वा सकलसुस्थं भाण्डस्य गतः टोप्पश्रेष्ठिगेहम् । स्थित: काञ्चिद् वेलां सह श्रेष्ठिना । उपगतायां च भोजनवेलायां कृतमज्जनौ प्रभुक्तावेतौ । भुक्तोत्तरकाले च चरणयोनिपत्य भणितो धरणेन टोप्पश्रेष्ठी। याचेऽहं किञ्चिद् वस्तु तातम्, यदि राजा ने कहा - "सार्थवाहपुत्र ! गह उचित नहीं है, तथापि तुम्हारे वचन उल्लंघन करने योग्य नहीं हैं । अतः आप ही जानें।" धरण ने कहा-"यही कृपा है कि मैं महाराज के द्वारा अनुगृहीत हुआ।" राजा ने कहा - "हे सार्थवाहपुत्र ! अपने धन को ले लो।" धरण ने कहा – “जो देव आज्ञा दें।" तब राजा के पंचजनों से अधिष्ठित होकर सुवदन के साथ घरण समुद्री किनारे पर गया। पंचों से सोना गिनवाया। धरण को सौंप दिया । तब धरण ने कहा- "हे सुवदन ! विवाद छोड़ो, पौरुष अंगीकार करो। भाग्यवश कौन स्खलित नहीं होता ! मैंने तुमसे एक लाख सोना कहा था। तुमने महानुभावता के कारण मुझे ही बहुत माना, एक लाख स्वर्ण को नहीं। तुमने कहा था-एक लाख स्वर्ण से क्या, तुमही मेरे लिए बहुत हो। यह सम्मानित वचन बहमुल्य हैं । अतः जो तुम्हें उचित लगे, उसे ले लो।" इस प्रकार कहने पर सुवदन लज्जित हुआ । उसने कुछ भी नहीं कहा। तब आठ लाख स्वर्ण देकर, राजा की पूजा कर माल को भलीभाँति रखकर टोप्पश्रेष्ठी के घर गया। सेठ के साथ कुछ समय बैठा। भोजन का समय आने पर दोनों ने स्नान और भोजन किया। भोजन के बाद परों में गिरकर टोप्पश्रेष्ठी से धरण ने कहा- "यदि आप मेरी प्रार्थना अस्वीकार न करें तो मैं कुछ वस्तु मांगता हूं।" तब हर्ष से विकसित नेत्रों वाला होकर-अहो ! मैं १. बहुगो-ग। २. आगयाए-क । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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