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________________ ५१६ [समराइच्चकहा सुवयणो ति । राइगा भणियं-जइ एवं, तो छिन्नो खु ववहारो; नवरं आणेह एत्थेव कइचि संपुडे त्ति। तओ' पेसियं पंचउलं, आणिया संपुडा, निहालिया राइणा बाहिं, न दि8 धरणनामयं । भणियं च णेण-भो नत्थि एत्थ धरगनामयं । सुवयण भणियं-देवो पमाणं ति। अन्नं च देव, देवस्स पुरओ एस' महंतं पि अलियं जंपिऊण अज्ज वि पाणे धारेइ ति। जाणियं देवेण, जं एएण पमाणीकयं । राइणा भणियं - भो धरण, किमेयं ति। धरणेण भणियं-देव, न अन्नहा एवं; फोडाविऊण मज्झं निरूवेउ देवो । तओ एयमायण्णिऊण संखुद्धो सुवयणो, हरिसिओ टोप्पसेट्टी। सद्दाविया सुवण्णयारा, फोडाविया संपुडा, दिटुं धरगनामयं । कुविओ राया सुवयणस्स लच्छीए य । भणियं च णेणं-हरे वावाएह एवं वागियगवेसधारिणं महाभुयंगं, निव्वासेह य एयं मम रज्जाओ विवन्नसीलजीवियं अलच्छि, समप्पेह य समत्थमेव रित्थं धरणसत्थवाहस्स । अन्नं च भण, भो महापुरिस किं ते अवरं कीरउ। धरगेग भगियं -देव, अलं मे रित्थेग । करेउ देवो पसायं सुवयणस्स अभयप्पयाणेणं । तओ 'अहो से महाणभावय' ति चितिऊण भणियं राइणा-सत्थवाहपुत्त, न जुतमेयं, तहावि इतरोऽपि पृष्टः । तेन भणितम्-देव ! सुवदन इति । राज्ञा भणितम--यद्येवं ततश्छिन्नः खलु व्यवहारः, नवरमानयतात्रैव कत्यपि सम्पुटानिति । ततः प्रेषितं पञ्चकुलम्, आनीता: सम्पुटाः । निभालिता राज्ञा बहिः, न दृष्टं धरणनाम । भणितं च तेन-भो ! नास्त्यत्र धरणनाम । सुवदनेन भणितम् -देवः प्रमाणमिति । अन्यच्च देव ! देवस्य पुरत एष महदपि अलीकं जल्पित्वा अद्यापि प्राणान् धारयतीति । ज्ञातं देवेन, यदेतेन प्रमाणीकृतम् । राज्ञा भणितम्-भो धरण ! किमेतदिति । धरणेन भणितं -देव ! नान्यथा एतद्, स्फोटयित्वा मध्यं निरूपयतु देवः । तत एतदाकण्य संक्षुब्धः सुवदनः, हृष्ट: टोप्पश्रेष्ठी । शब्दायिताः सुवर्णकाराः । स्फोटिताः सम्पुटा: । दृष्टं धरणनाम । कुपितो राजा सुवदनस्य लक्ष्म्याश्च । भणितं च तेन - अरे व्यापादयतैतं वाणिजकवेषधारिणं महाभुजंगम, निर्वासयत चैतां मम राज्याद् विपन्नशीलजीवितामलक्ष्मीम, समर्पयत समस्तमेव रिक्थं धरणसार्थवाहस्य । अन्यच्च, भग भो महापुरुष ! किं तेऽपरं क्रियताम् । धरणेन भणितम्-अलं मे रिक्थेन । करोतु देवः प्रसाद सुवदनस्या भयप्रदानेन । ततः 'अहो तस्य महानुभावता' इति चिन्तयित्वा भणितं मेरा नाम धरण है।" दूसरे से भी पूछा । उसने कहा – “महाराज, सुबदन ।” राजा ने कहा- “यदि ऐसा है तो मुकद्दमा निपट गया। कुछ गोलों को यहाँ ले आओ।" तब पंचजनों को भेजा, सम्पुटों (गोलों) को लाये । राजा ने उनको बाहर देखा, उन पर धरण नाम दिखाई नहीं दिया। उसने कहा-'अरे, इन पर धरण माम नहीं है।" सुवदन ने कहा-"महाराज प्रमाण हैं । दूसरी बात यह है महाराज ! महाराज के सामने यह बहुत बड़ा झूठ बोलकर भी प्राणों को धारण कर रहा है। देव ने जान ही लिया. जो इसने प्रमाण बतलाया।" राजा ने कहा"हे धरण ! यह क्या ?" धरण ने कहा "देव ! यह बात झूठी नहीं है । तोड़कर महाराज अन्दर देखिए।" इसे सुनकर सुवदन क्षुब्ध हुआ, टोप्पश्रेष्ठी प्रसन्न हुआ । सुनारों को बुलाया गया। गोलों को तोड़ा गया। धरण नाम दिखाई पड़ा। राजा सुवदन और लक्ष्मी पर कुपित हुआ। उसने कहा--अरे इस वणिक् वेषधारी चोर को मार डालो, इस अलक्ष्मी को मेरे राज्य से बाहर निकाल दो जो कि शीलभ्रष्ट होकर जी रही है। सारा धन धरण व्यापारी को समर्पित कर दो। दूसरी बात, हे महापुरुष ! कहो, तुम्हारा क्या किया जाय ?" धरण ने कहा- "मुझे सम्पत्ति नहीं चाहिए। महाराज सुवदन को अभयदान देकर कृपा करें।" 'तब इसकी महानुभावता आश्चर्यजनक है', ऐसा सोचकर १. तो पेसिऊण पंचउलं आणिया- । २. एह हमेतं पि-क । ३. धरे ति- । ४. उवलद्धं-क । ५. करीयउ-ख। . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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