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छट्ठो भवो ]
__ ता कि इमीए । सुवयणस्स न जत्तमेयं ति। अहवा मइरा विय मयरायवडढणी चेव इत्थिया हवइ ति । विसयविसमोहियमणेणं तेणावि एवं ववसिय ति।
एवं च चिंतयंतो सेटिनिउत्तेहि कहवि पुरिसेहि।
सूरुग्गमवेलाए दिट्ठो बाहोल्लनयणेहिं ॥५४०॥ भणिओ य णेहि-सत्यवाहपुत्त, रयणीए न आगओ तुमं ति संजायासंकेण रयणोए चेव तुज्झ अन्नेसणनिमित्तं पेसिया अम्हे टोप्पसेट्टिण ति। कहकहवि दिट्टो सि संपयं । ता एहि, गच्छम्ह, निव्ववे हि अर्याचताणलपलित्तं सेटिहिययं । तओ 'अहो पुरिसाणमंतरं' ति चितिऊण पयट्टोधरणो, पविट्ठो नरि, दिट्ठो य णेण सेट्टी। पइरिक्कमि भणिओ सेट्टिणा। वच्छ, कुओ तुम किं वा विमणदुम्मणो दोससित्ति । तओ 'लज्जावणिज्जयं अणाचिक्खणीयमेयं ति चितिऊण बाहोल्ललोयणेण न जपियं धरणेण। सेट्टिणा भणियं-वच्छ, सुयं मए, जहा आगयं जाणवतं चीणाओं, ता तं तुमए उवलद्धं न व ति। तओ सगग्गयक्खरं जंपियं धरणेणं-अज्ज, उवलद्धं ति । सोगाइरेगेण य पवत्तं से
ततः किंमनया। सुवदनस्य न युक्तमेतदिति । अथवा मदिरेव मदरागवर्धन्ये व स्त्री भवतीति । विषयविषमोहितमनसा तेनाप्येतद् व्यवसितमिति ।
एवं च चिन्तयन् श्रेष्ठिनियुक्त्तैः कथमपि पुरुषः ।
सूर्योद्गमवेलायां दृष्टो बाष्पार्द्रनयनैः ।।५४०॥ भणितश्च तैः-सार्थवाहपुत्र ! रजन्यां नागतस्त्वमिति संजाताशङ्केन रजन्यामेव तवान्वेषण निमित्तं प्रेषिता वयं टोप्पश्रेष्ठिनेति । कथंकथमपि दृष्टोऽसि साम्प्रतम् । तत एहि, गच्छामः, निर्वापय अनेकचिन्तानलप्रदीप्तं श्रेष्ठिहृदयम् । ततः 'अहो पुरुषाणामन्तरम्' इति चिन्तयित्वा प्रवृत्तो धरणः, प्रविष्टो नगरीम्, दृष्टश्च तेन श्रेष्ठी। प्रतिरिक्ते भणितः श्रेष्ठिना-वत्स ! कुतस्त्वम्, किंवा विमनोदुर्मना दृश्यसे इति । ततो 'लज्जनीयमनाख्यानीयमेतद्' इति चिन्तयित्वा बाष्पार्द्रलोचनेन नजल्पितं धरणेन। श्रेष्ठिना भणितम्-वत्स ! श्रुतं मया, यथाऽऽगतं यानपात्रं चीनाद्, ततस्तत त्वयोपलब्धं नवेति । तत: सगद्गदाक्षरं जल्पितं धरणेन । आर्य ! उपलब्धमिति । शोका
अतः इससे क्या? सुवदन के लिए यह उचित नहीं था। अथवा मदिरा के समान मदराग को बहाने वाली ही स्त्री होती है । विषय-विष से मोहित मन से उसने ही यह निश्चय किया।
जब वह यह सोच ही रहा था कि सूर्योदय के समय सेठ के द्वारा नियुक्त कुछ पुरुषों ने किसी प्रकार आँसू भरे नेत्रों से इसे देखा ॥५४०।।
उन्होंने कहा-सार्थवाहपुत्र ! तुम रात्रि में आये ही नहीं, अत: आशङ्का उत्पन्न हो जाने के कारण टोप्पश्रेष्ठी ने आपकी खोज के लिए रात्रि में ही हम लोगों को भेजा। जिस किसी प्रकार अब दिखाई पड़े हो। अत: आओ, चलें। अनेक चिन्ता रूप अग्नि से ज्वलित सेठ के हृदय को शान्ति दें। तब 'अहो ! पुरुषों का भेद'... ऐसा सोचकर धरण चला। नगरी में प्रविष्ट हआ। उसने सेठ को देखा । एका त में सेठ ने पूछा-वत्स ! तुम कहाँ थे ? किस कारण निराश और दुःखी दिखाई देते हो ? तब 'यह लज्जनीय है, कहने योग्य नहीं है'ऐसा सोचकर जिसकी आँखों में आँसू भरे थे ऐसे धरण ने (कुछ भी) नहीं कहा । सेठ ने कहा-वत्स ! मैंने सुना है कि चीन से जहाज आया था, वह तुम्हें मिला या नहीं? तब गद्गद वाणी में धरण ने कहा-आर्य, मिल गया। शोक की
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