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[ समराइच्चकहा बाहसलिलं । तओ 'नूणं विवन्ना से भारिया, अन्नहा कहं ईइसो सोगपसरो' ति चितिऊण भणियं टोप्पसेट्टिणा-वच्छ, अवि तं चेव तं जाणवत्तं ति। धरणेण भणियं-'आम' । सेटिणा भणियं-अवि कुसलं ते भारियाए । धरणेण भणियं-अज्ज, कुसलं । सेटिगा भणियं - ता किमन्नं ते उव्वेवकारणं । धरणेण भणियं-अज्ज, न किंचि आचिक्खियव्वं ति । से टुणा भणियं - ता कि विमणो सि । धरणेण भणियं-'आम'। सेट्ठिणाभणियं-'किमाम'धरणेणभणियं- 'एय',सेटिणा भणियं-'किमेयं',धरणेण भणियं 'न किंचि' । सेटिणा भणियं-वच्छ, किमेएहि । सुन्नभासिएहि आचिक्ख सम्भावं । न य अहं अजोग्गो आचिक्खियवस्स, पडिवन्नो य तए गुरू । तओ 'न जुत्तं गुरुआणाखंडणं' ति चितिऊण जंपियं धरणेण अज्ज, अज्जस्स आण'त्ति फरिय ईइसं पिभासीयइ त्ति। सेट्टिणा भणिय-वच्छ,नत्थि अविसओ गुरुयणाणुवत्तीए । धरणेग भणियं-अज्ज, जइ एव, ता कुसलं मे भारियाए जीविएणं, न उण सीलेणं । सेट्टिणा भणियं-कहं वियाणसि।धरणेण भणियं - 'कज्जओ' । सेट्टिणा भणियं - कह विय। तओ आचिक्खिओ से भोयणाइओ जलनिहितडपज्जवसाणो सयलवुत्तन्तो। तं च सोऊण कुदिओ टोप्पसेट्ठी
तिरेकेण च प्रवत्तं तस्य बाष्पसलिलम् । ततो 'नूनं विपन्ना तस्या भार्या, अन्यथा कथमीदृशः शोकप्रसरः' इति चिन्तयित्वा भणितं टोपत्रेष्ठिना-वत्स ! अपि तदेव तद् यानपात्रमिति । धरणेन भणितम-'ओम्'। श्रेष्ठिना भणितम् - अपि कुशलं ते भार्यायाः ।धरणेन भणितम्-आर्य ! कुशलम्। श्रेष्ठिना भणितम्-ततः किमन्यत्ते उद्वगकारणम् । धरणेन भणितम्-आर्य ! न किञ्चिदाख्यात. व्यमिति । श्रेष्ठिना भणितम्-ततः किं विमना असि । धरणेन भणितम् -'ओम्' । श्रेष्ठिना भणितम् 'किमोम' । धरणेन भणितम्-'एतद्'। श्रेष्ठिना भणितम् -'किमेतद्' । धरणेन भणितम्-'न किञ्चित'। श्रेष्ठिना भणितम्-किमेतैः शून्यभाषितैः, आचक्ष्व सद्भावम् । न चाहमयोग्य आख्यातव्यस्य, प्रतिपन्नश्च त्वया गुरुः । ततो 'न युक्तं गुर्वाज्ञाखण्डनम्' इति चिन्तयित्वा जल्पितं धरणेन । आर्य ! 'आर्यस्याज्ञा' इति कृत्वा ईदृशमपि भाष्यते इति । श्रष्ठिना भणितम् --वत्स ! नास्त्यविषयो गुरुजनानुवृत्याः । धरणेन भणितम्-आर्य ! यद्येवं ततः कुशलं मे भार्याया जीवितेन, न पुनः शीलेन । श्रेष्ठिना भणितम् -कथं विजानासि । धरणेन भणितम्-कार्यतः । श्रेष्ठिना भणितम्-कथमिव । तत आख्यातस्तस्य भोजनादितो जलनिधितटपर्यवसानः सकलवृत्तान्तः । तच्च श्रुत्वा कुपितः टोप्प
अधिकता के कारण उसकी आँखों से आंसू की धारा बहने लगी। तब 'निश्चित ही इसकी पत्नी मर गयी, नहीं तो इतना अधिक दुःखी क्यों होता'—ऐसा सोचकर टोप्पश्रेष्ठी ने कहा-वत्स ! वह जहाज वही था ? धरण ने कहा-हाँ । सेठ ने कहा-तुम्हारी पत्नी सकुशल है ? धरण ने कहा-आर्य कुशल है । सेठ ने कहा-तो दुःखी होने का और क्या कारण है ? धरण ने कहा - आर्य ! कुछ भी नहीं कहना चाहिए ! सेठ ने कहा- तो बेमन क्यों हो? धरण ने कहा-हाँ। सेठ ने कहा-क्या हाँ? धरण ने कहा-यही। सेठ ने कहा-- क्या यही? धरण ने कहा-कुछ भी नहीं । सेठ ने कहा- इस शून्य वाणी से क्या ? सही कहो। मुझसे न कहा जा सकता हो ऐसा भी नहीं ! तुमने मुझे बड़ा माना है। तब 'बड़ों की आज्ञा न मानना उचित नहीं' ऐसा सोचकर धरण ने कहाआर्य ! चूंकि आर्य की आज्ञा है अतः यह भी सुनाता हूँ । सेठ ने कहा-वत्स ! गुरुजनों से न कहने योग्य कुछ भी नहीं है। धरण ने कहा-आर्य ! यदि ऐसा है तो मेरी पत्नी प्राणों से तो सकुशल है, किन्तु शील से नहीं। सेठ ने कहा-कैसे जानते हो ? धरण ने कहा-कार्य से । सेठ ने कहा-कैसे ? तब भोजन से लेकर समुद्र के तट तक का समस्त वृत्तान्त सुनाया। उसे सुनकर टोप्पश्रेष्ठी सुवदन पर कुपित हुआ। धरण को बैठाकर राजा के पास
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