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________________ [समराइच्चकहा य। जहा, अज्जेव एयं कयपाणभोयणं केणई उवाएण रयणीए वावाइस्सामो त्ति । मज्जिओ एसो, पाइओ महं काराविओ पाणवित्ति । अइकतो. वासरो, समागया रयणी, अत्थयं सयणिज्जं। निवष्णो एसो लच्छी य । तओ मयपराहीणस्त सिमिणए विय अन्वत्तं चेटमणुहवंतस्स दिन्नो इमीए गले पासओ, वनिओ य एसो। परिओसवियसि यच्छीए लच्छोए सुवयणेण व विमूढो धरणो मओ त्ति काऊण उज्झिओ जलनिहितडे । गयाइं जाणवत्तं । जलनिहिपवणसंगमेण य समासत्थो एसो। चितियं चणेणं हंत किमेयं ति । कि ताव सुविणओ आओ इंदजालं आओ मइविभमो आओ सच्चयं चेव त्ति । उवलद्धं जलनिहितडं । सच्चं चेव त्ति जाओ से विनिच्छओ। उदिऊण चितियमणेण । अहो लच्छोए चरियं, अहो सुवयणस्स पोरुसं। अहवा दुढगुंठो विय उम्मग्गपस्थिया, किपागफलभोगो विय मंगुलावसाणा, दुस्साहियकिच्च व्व दोसुप्पायणी, कालरत्ती विय तमोवलित्ता, ईइसा चेव महिलिया होइ । अवि य जलणो विघेप्पइ सुहं पवणो भयगो य केणइ नएण। महिलामणो न घेप्पइ बहुएहि वि नयसहस्सेहिं ॥५३६॥ कृतपानभोजनं केनचिदुपायेन रजन्यां व्यापादयिष्याव इति । मज्जित एषः, पायितो मधु, कारितः प्राणवृत्तिम् । अतिक्रान्तो वासरः, समागता रजनी, आस्तृतं शयनीयम् । निपन्न एष लक्ष्मीश्च । ततो मदपराधीनस्य स्वप्ने इवाव्यक्तां चेष्टामनुभवतो दत्तोऽनया गले पाशकः, वलितश्चैषः । परितोषविकसिताक्ष्या लक्ष्म्या सुवदनेन च विमूढो धरणो मृत इति कृत्वा उज्झितो जलनिधितटे। गतौ यानपात्रम् । जलनिधिपवनसंगमेन च समाश्वस्त एषः। चिन्तितं च तेन-हन्त किमेतदिति। किं तावत्स्वप्नः, अथवा इन्द्रजालम् , अथवा मतिविभ्रमः, अथवा सत्यमेवेति । उपलब्धं जलनिधितटम् । सत्यमेवेति जातस्तस्य विनिश्चयः । उत्थाय चिन्तितमनेन-अहो लक्ष्म्याश्चरितम् , अहो सुवदनस्य पौरुषम् ! अथवा दुष्टाश्व इव उन्मार्गप्रस्थिता, किंपाकफलभोग इव अमङ्गलावसाना दुःसाधितकृत्येव दोषोत्पादनी, कालरात्रिरिव तमोऽवलिप्ता ईदृश्येव महिला भवति । अपि च ज्वलनोऽपि गृह्यते सुखं पवनो भजगश्च केनचिन्नयेन । महिलामनो न गृह्यते बहुभिरपि नयसहस्रः ॥३५६।। किया कि आज ही इसे भोजनपान आदि कराकर किसी उपाय से रात्रि में मार डालेंगे । इसने स्नान किया, मधु-पान कराया, भोजन कराया। दिन व्यतीत हुआ, रात्रि आयी, बिस्तर बिछाया। यह और लक्ष्मी सोये । अनन्तर मद से पराधीन हए, स्वप्न में अव्यक्त चेष्टा-सी अनुभव करते हुए इस (धरण) के गले में इस (लक्ष्मी) ने फांसी लगा दी और इसे ढंक दिया। सन्तोष के कारण विकसित नेत्रोंवाले लक्ष्मी और सुवदन ने मूच्छित धरण को मरा हआ जानकर समुद्र के तट पर छोड़ दिया और दोनों जहाज पर चले गये। समुद्र की वायू के स्पर्श से इसे कुछ चेतना आयी। इसने सोचा-हाय ! यह क्या ? क्या (यह) स्वप्न है अथवा इन्द्रजाल अथवा बुद्धि का भ्रम है अथवा सत्य ही है ! समुद्र के तट को प्राप्त कर उसका निश्चय सत्य हो गया। उठकर इसने सोचा-- अहो लक्ष्मी का चरित्र, अहो सुवदन का साहस ! अथवा दुष्ट घोड़ों के समान उन्मार्ग पर से जानेवाले किंपाक के फल-भक्षण के समान अमङ्गलपूर्वक समाप्त होने वाली, कठिनता से साधी हुई कृत्या के समान अथवा कठिनता से साधे हुए कार्य के समान, दोषों को उत्पन्न करनेवाली कालरात्रि के समान, अन्धकार से अवलिप्त महिला ऐसी ही होती है । और भी . अग्नि, वायु और सर्प किसी नीति से सुखपूर्वक ग्रहण किए जा सकते हैं, किन्तु महिलाओं का मन हजारहजार नयों से भी ग्रहण नहीं किया जा सकता ॥५३६।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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