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________________ ૪૨૬ दाऊण य अहिओयं देवयजन्नाण जे खलु अभव्वा । घायंति जियसयाई पावेंति दुहाइ ते नरए ॥ ५२६ ॥ ता विरम एयाओ ववसायाओ ति । कालसेणेण भणियं - जं तुमं आणवेसि त्ति । तओ गामदेणे अन्नाभावे यभक्खणनिमित्त च मोत्तूण कओ अणेण कायम्बरिअडविपविट्ठस्स सत्यस्स पाणिघाण जावज्जीवि नियमो । फुल्लब लिगंधचंदणेहिं पूइया देवया । नीओ णेण सलबंद संगओ नियंगेहमेव धरणो । कओ उचिओ उवयारो । भुत्तत्तरकालंमि य उवणीयं से समत्थरित्थं ति । सबराहिवेण तुरियं गहियं जं सत्यभंगंमि ॥ ५२७॥ करिकुंभसमुत्थाणि य महल्लमुत्ताहलाइ पवराई । दंता य गयवराणं चमराणि य जच्चचमरीणं ॥ ५२८ ॥ घेतू यतं रित्थं दाऊणय किंचि बंदयाणं पि । विहरह जहासुहेणं भणिऊण विसज्जिया तेणं ॥ ५२६ ॥ [ समराइच्चकहा दत्त्वा चाभियोगं देवतायज्ञेभ्यो ये खत्वभव्याः । घातयन्ति जीवशतानि प्राप्नुवन्ति दुःखानि ते नरके ।। ५२६ ॥ ततो विरम एतस्माद् व्यवसायादिति । कालसेनेन भणितम् - यत्त्वमाज्ञापयसीति । ततो ग्रामदेशलुण्टने अन्नाभावे च भक्षणनिमित्तं च मुक्त्वा कृताऽनेन कादम्बर्यटवीप्रविष्टस्य सार्थस्य प्राणिघातनस्य यावज्जीविको नियमः । पुष्पबलिगन्धचन्दनैः पूजिता देवता । नीतस्तेन सकलबन्दिसंगतो निजगेहमेव धरणः । कृत उचित उपकारः । भुक्तोत्तरकाले चोपनीतं तस्मै समस्तरिक्थमिति । शवराधिपेन त्वरितं गृहीतं यत्सार्थभङ्गे ।। ५२७॥ करिकुम्भसमुत्थानि च महामुक्ताफलानि प्रवराणि । दन्ताश्च गजवराणां चामराणि च जात्यचमरीणाम् ।। ५२८ ।। गृहीत्वा च तद् रिक्थं दत्त्वा च किंचिद् बन्दिनामपि । विहरत यथासुखं भणित्वा विसर्जितास्तेन ( धरणेन ) ।। ५२६ ॥ जो अभव्य देवताओं के यज्ञ में पूजा के निमित्त सैकड़ों जीवों का घात करते हैं वे निश्चय से नरक में दुःखों को प्राप्त करते हैं ॥५२६।। अतः इस व्यवसाय से विराम लो । कालसेन ने कहा--जो आप आज्ञा दें। तब अन्न के अभाव में खाने के लिए ग्राम और देश का लूटना छोड़कर वन में प्रविष्ट सार्थ के न लुटने तथा प्राणिघात न करने का इसने जीवन भर के लिए नियम कर लिया । पुष्पोपहार, गन्ध और चन्दन से देवी की पूजा की। समस्त बन्दियों के साथ धरण को अपने घर ले गया । उचित सत्कार किया । Jain Education International भोजन करने के पश्चात् शवरपति वह सब धन तुरन्त लाया जो कि काफिले के छिन्न-भिन्न हो जाने पर ग्रहण किया था । (इनमें ) हाथी के गण्डस्थल से निकले हुए श्रेष्ठ मुक्ताफल, श्रेष्ठ हाथियों के दाँत और उत्तम जाति वाले चमरीमृगों के चामर थे। उस धन को ग्रहण कर तथा कुछ बन्दियों को भी देकर धरण ने बन्दियों से कहा - सुखपूर्वक विहार करो। इस प्रकार उन सबको विदा कर दिया ।।५२७-५२६।। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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