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छट्ठो भवो]
४६७ धरणो वि कालसेणपीईए तत्थेव कंचि कालं गमेऊण विसज्जिओ कालसेणेण, पयट्टो निययपरि, पत्तो य कालक्कमेणं । [विन्नाओ अम्मापिईहिं नायरेहि य] परितुट्ठो से गुरुयणो। निग्गया नयरिमहंतया। पच्चुवेक्वियं भंडं संखियं च मोल्लेणं जाव सवाया कोडि त्ति । इओ अइक्कते अद्धमासे आगओ देवनंदी । तस्य वि य निग्गया नयरिमहंतया। पच्चवेक्खियं भंडं संखियं च मोल्लेणं जाव अद्धकोडि त्ति । तमो विलिओ देवनंदी। समप्पियं पउरभंडमोल्लं । सेसेण य परमणोरहसंपायणेण सफलं पुरिसभावमणुहवंतस्स आगया मयणतेरसी । भणिओ य एसो नपरिमहंतएहि 'नीसरेहि रहवर'। धरणेण भणियं-अलं बालकोडाए । पसंसिओ नयरिमहंतरहि। ___अइक्कतो य से कोइ कालो परत्थसंपायणसुहमणुहवंतस्स । निओइयपायं च णेण नियभुओवज्जियं दविणजायं। समप्पन्ना य से चिता। अवस्समेव पुरिसेण उत्तमकुलपसूएण तिवग्गो सेवियवो। तं जहा, धम्मो अत्थो कामो य । तत्थ अपरिचत्तसव्वसंगेण अत्थप्पहाणण होयव्वं ति। तओ चेव तस्त दुवे संपज्जंति । तं जहा, धम्मो य कामो य। अन्नं च, एस अत्थो नाम महंत देवयारूवं । एसो खु
____धरणोऽपि च कालसेनप्रीत्या तत्रैव कञ्चित्कालं गमयित्वा विसजितः कालसेनेन प्रवृत्तो निजपुरीम्, प्राप्तश्च कालक्रमेण । [विज्ञातो माता पितृभ्यां नागरकैश्च] । परितुष्टस्तस्य गुरुजनः । निर्गता नगरीमहान्त: । प्रत्यवेक्षितं भाण्डम्, संख्यातं च मूल्येन यावत् सपादा कोटिरिति । इतोऽतिक्रान्तेऽर्धमासे आगतो देवनन्दी । तस्यापि च निर्गता नगरीमहान्तः । प्रत्यवेक्षितं भाण्डम्, संख्यातं च मल्येन यावदर्धकोटिरिति । ततो व्यलीको (लज्जितो) देवनन्दी । समर्पितं पौरभाण्डमूल्यम । शेषेण च परमनोरथसम्पादनेन सफलं पुरुषभावमनुभवत आगता मदनत्रयोदशी । भारतश्चैष नगरीमहद्भिः 'निःसारय रथवरम्' । धरणेन भणितम् -- अलं बालक्रीडया। प्रशंसितो नगरी
महद्भिः ।
अतिक्रान्तश्च तस्य कोऽपि कालः परार्थसम्पादनसुखमनुभवतः । नियोजितप्रायं च तेन निजभुजोपार्जितं द्रविणजातम् । समुत्पन्ना च तस्य चिन्ता । अवश्यमेव पुरषेणोत्तम कुलप्रसूतेन त्रिवर्गः सेवितव्यः । तद् यथा- धर्मोऽर्थः कामश्च । तत्रापरित्यवत सर्वसङ्गेन अर्थप्रधानेन भवितव्यमिति तत एव तस्य द्वौ संपद्येते । तद् यथा, धर्मश्च कामश्च । अन्यच्च-एषोऽर्थो नाम महद् देवता
धरण भी कालसेन की प्रीति से कुछ समय वहीं बिताकर, कालसेन से विदाई लेकर अपने नगर की ओर चल पड़ा। कालक्रम से वह वहाँ पहुँच भी गया। माता, पिता और नागरिकों ने जाना । गुरुजन सन्तुष्ट हुए।
बड़े-बड़े लोग निकले। माल को देखा, मूल्य से गणना की-सवा करोड़ का था। इधर आधा माह व्यतीत होने पर देवनन्दी भी आया। नगर के बड़े-बड़े लोगों ने उसके भी माल को निकाला। माल को देखा, मूल्य से गणना की-आधे करोड़ का था। तब देवनन्दी ।ज्जित हुआ। नगर के माल का मूल्य समर्पित किया। बचे हुए धन से दूसरे के मनोरथ को पूरा करते हुए अपना नरभव सफल माना । मदनत्रयोदशी आयी। नगर के बड़े लोगों ने इससे (धरण से) कहा-रथ को निकाली। धरण ने कहा-बालक्रीड़ा से बस अर्थात् बाल क्रीड़ा रहने दो । नगर के बड़े लोगों ने प्रशंसा की।
दूसरे के प्रयोजन को पूरा करने के सुख का अनुभव करते हुए उसका कुछ समय व्यतीत हुआ । अपनी भुजाओं से उपाजित द्रव्य को उसने नियोजित किया । उसे चिन्ता उत्पन्न हुई। उत्तमकुल में उत्त,न्न हुए पुरुष को अवश्य ही त्रिवर्ग का सेवन करना चाहिए-धर्म, अर्थ और काम तीनों का। समस्त आसक्तियों को न छोड़ते हुए अर्थप्रधान होना चाहिए, उसीसे धर्म और काम का सम्पादन होता है। दूसरी बात यह है कि 'यह धन बड़ा देवता
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