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________________ ४६८ [ समराइच्चकहा पुरिसस्स बहुमाणं वद्धावेइ, गोरवं जणेइ, महग्घयं उप्पाएइ, सोहग्गं करेइ, छायामावहइ, कुलं पयासेइ, रूवं पयासेइ, बुद्धि पयासेइ । अत्थवंतो हि पुरिसा अदेता वि लोयाणं सलाहणिज्जा हवंति । जं चेव करेंति, तं चेव तेसि असोहणं पि सोहणं वणिज्जए। अभग्गपणइपत्थणं च अगुहवंति परत्थसंपायणसुहं । ता जइ वि एस मह पुन्वपुरिसोवज्जिओ अइपभूओ अत्थि, तहावि अलं तेण गुरुपणइणिसमाणेण। ता अन्नं उवज्जिणेमि, गच्छामि दिसावणिज्जेणं ति । चितिऊण विन्नत्ता जणणिजणया । अणुमन्निओ य हिं गओ महया सत्थेणं समहिलिओ पुव्वसमुद्दतडनिविट्ठ वेजयंति नाम नर्याय । दिट्ठो नरवई । बहुमन्निओ य णेणं। निओइय भंडं, न समासाइओ इट्ठलाभो। चितियं च णण-समागओ चेव जलनिहितडं । ता गच्छामि ताव परतीरं । तत्थ मे गयस्स कयाइ अहिलसियपओयणसिद्धी भविस्सइ ति। गहियं परतीरगाभियं भंडं । संजत्तियं पवहणं । पसत्थतिहिकरणजोगेण निग्गओ नयरीओ, गओ समद्दतीरं, पूइओ अत्थिजणो, अग्घिओ जलनिही । तओ वंदिऊण गुरुदेवए उवारूढो जाणवत्तं । आगड्डियाओ वेगहारिणीओ सिलाओ, पूरिओ सियवडो, विमुक्कं जागवत्तं, गम्मए चीणदीवं ति। रूपम् । एष खलु पुरुषस्य बहुमानं वर्धयति, गौरवं जनयति, महार्यतामुत्पादयति, सौभाग्यं करोति, छायामावहति, कुलं प्रकाशयति, रूपं प्रकाशयति, बुद्धि प्रकाशयति । अर्थवन्तो हि पुरुषा अददतोऽपि लोकानां श्लाघनीया भवन्ति । यदेव कुर्वन्ति तदेव तेषामशोभनमपि शोभनं वर्ण्यते, अभग्नप्रणयिप्रार्थनं चानुभवन्ति परार्थसम्पादनसुखमिति । ततो यद्यपि एष मम पूर्वपुरुषोपाजितोऽतिप्रभूतोऽस्ति, तथापि अलं तेन गुरुप्रणयिनीसमानेन । ततोऽन्यमुपार्जयामि, गच्छामि दिग्वाणिज्येनेति चिन्तयित्वा विज्ञप्तौ जननीजनको । अनुमतश्च ताभ्यां गतो महता सार्थेन समहिलः पूर्वसमुद्रतटनिविष्टां वैजयन्तीं नाम नगरीम् । दृष्टो नरपतिः । बहुमानितश्च तेन । नियोजितं (विक्रीतं) भाण्डम, न समासादित इष्टलाभः । चिन्तितं च तेन-समागत एव जलनिधितटम, ततो गच्छामि तावत्परतीरम् । तत्र मे गतस्य कदाचिदभिलषितप्रयोजनसिद्धिर्भविष्यतीति । गृहीतं परतीरगामिकं भाण्डम् । संयात्रितं प्रवहणम् । प्रशस्ततिथिकरणयोगेन निर्गतो नगर्याः, गतः समुद्रतीरम, पूजितोऽथिजनः, अघितो जलनिधिः । ततो वन्दित्वा गुरुदेवतान् उपारूढो यानपात्रम्। आकृष्टा वेगहारिण्यः शिलाः, पूरितः सितपटः, विमुक्तं यानपात्रम्, गम्यते चीनद्वीपमिति । रूप है, यह पुरुष के सम्मान को बढ़ाता है, गौरव उत्पन्न करता है, अत्यधिक महत्त्व को उत्पन्न करता है। सौभाग्य को करता है, कान्ति को लाता है, कुल को प्रकाशित करता है, रूप को प्रकाशित करता है, (और) वृद्धि को (भी) प्रकाशित करता है। धनवान व्यक्ति न देते हुए भी लोक में प्रशंसनीय होते हैं। जो कुछ करते हैं वह अशोभन होते हुए भी शोभन के रूप में वर्णित किया जाता है। याचकजनों की प्रार्थना को न तोड़ते हुए परार्थसाधन रूप सुख का अनुभव करते हैं। अतः यद्यपि मेरे पूर्वजों के द्वारा उपार्जित धन बहुत अधिक है, किन्तु गरु के प्रति की गयी याचना के समान इससे बस करना चाहिए । अतः दसरा धन उपार्जन करूंगा-ऐसा सोचकर माता-पिता से निवेदन किया। उन दोनों ने अनुमति दे दी। बहुत बड़े व्यापारियों के झुण्ड तथा पत्नी के साथ पूर्व समुद्र के किनारे स्थित वैजयन्ती नामक नगरी को गया। राजा ने देखा। उसने बहुत सम्मान दिया। माल को बेचा, किन्तु अभीप्सित लाभ नहीं प्राप्त हआ। उसने सोचा-समुद्र के तट पर आ गया है, अत: दसरे किनारे पर जाऊँगा। वहाँ पर जाने पर कदाचित् अभिलषित प्रयोजन की सिद्धि हो जाएगी। दूसरे किनारे पर ले जाये जानेवाले माल को ले लिया। गाड़ी (यान) को तैयार किया। पूण्य तिथि और करण के योग में नगरी से निकला। समुद्र के किनारे गया। याचकों की पूजा की, समुद्र को अर्घ्य दिया। गुरु-देवताओं को नमस्कार कर जहाज पर सवार हो गया। वेग को रोकनेवाली शिला खींची। सफेद वस्त्र (पाल) को लगाया, यान-पात्र को छोड़ा, चीन द्वीप की ओर गया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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