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________________ छटठो भवो ] ४६६ अन्नया य अइक्कतेसु कइवयदिणेसु कुसलपुरिसविमुक्के विय नाराए वहंते जाणवत्ते गयणयलमज्झसंढिए दिणयरंमि आगंपयंतो विय मेइणि धुणंतो विय समुई उम्मूलंतो विय कुलसेलजालाणि पयट्टो मारुओ। तओ एरावणो विय गुलुगुलेन्तो पडिसोत्तवाहियसरियामुहं खुहिओ महण्णवो, विसण्णा निज्जामगा। तओ समं गमणारंभेण ओसारिओ सियवडो, जोवियासा विय विमुक्का नंगरसिला निज्जामएहि। तहावि य तत्थ कंचि वेलं गमेऊण विवन्नं जाणवतं । जीवियसेसयाए समासाइयं फलगं, अहोरत्तेण संघिऊण जलनिहिं सुवण्णदोवंमि लग्गो सत्थवाहपुत्तो। चितिथं च णेणं, अहो परिणई दइव्वस्स । न याणामि अवत्थं पिययमाए परियणस्स य । अहवा किं विसाएणं। एसो चेव एत्थ पमाणं ति । तओ कयलफलेहिं संपाइया पाणवित्ती। अत्थमिओ सूरिओ। कोण पल्लवसत्थरो, सोयावणयणत्थं च अरणोपओएण पाडिओ जलणो। तप्पिऊण कंचि कालं पणमिऊण गरुदेवए य पसुत्तो एसो। अइक्कंता रयणी, विउद्धो य । उग्गओ अंसुमाली । दिटुंच णतं जलणच्छिक्क सव्वमेव सुवण्णाहूयं धरणिखंडं। चितियं च ण । अहो एयं खु धाउखेत्तं; ता पाडेमि एत्थ सुवण्णय अन्यदा चातिक्रान्तेषु कतिपयदिनेषु कुशलपुरुषविमुक्ते इव नाराचे वहति यानपात्रे गगनतलमध्यसंस्थिते दिनकरे आकम्पयन्निव मेदिनी धूनयन्निव समुद्रम् उन्मूलयन्निव कुलशैलजालानि प्रवृत्तो मारुतः । तत ऐरावण इव गुलुगुलायमानः प्रतिस्रोतोवाहितसरिन्मुखं क्षुब्धो महार्णवः, विषण्णा निर्यामकाः । ततः समं गमनारम्भेणापसारितः सितपटः, जीविताशेव विमुक्ता नाङ्गरशिला निर्यामकैः। तथापि च तत्र काञ्चिद् वेलां गमयित्वा विपन्नं यानपात्रम् । जीवितशेषतया समासादितं फलकम् अहोरात्रेण लङ्घित्वा जलनिधि सुवर्णद्वीपे लग्नः सार्थवाहपुत्रः । चिन्तितं च तेन-अहो परिणतिर्दैवस्य, न जानाम्यवस्थां प्रियतमायाः परिजनस्य च । अथवा किं विषादेन । एष एवात्र प्रमाणमिति। ततः कदलफलैः संपादिता प्राणवृत्तिः । अस्तमित: सूर्यः । कृतस्तेन पल्लवस्रस्तरः, शीतापनयनार्थे चारणिप्रयोगेण पातितो ज्वलनः । तप्त्वा कञ्चित्कालं प्रणम्य गुरुदैवतांश्च प्रसुप्त एषः । अतिक्रान्ता रजनी, विबुद्धश्च । उद्गतोऽशुमाली । दृष्टं च तेन तद् ज्वलनस्पष्टं सर्वमेव सुवर्णीभूतं धरणीखण्डम् । चिन्तितं च तेन-अहो एतत्खलु धातुक्षेत्रम्, ततः पातयाम्यत्र सुवर्णकमिति । दूसरी बार कुछ दिन बीत जाने पर कुशल पुरुषों के द्वारा छोड़े गये बाण के समान जहाज के चलने पर जबकि सूर्य आकाश के मध्य में स्थित था (तब), पृथ्वी को मानो कपाती हुई, समुद्र को मानो उड़ाती हुई और कुलपर्वतों के समूह को उखाड़ती हुई वायु चल पड़ी। तब इन्द्र के हाथी के समान गुलगुल शब्द करता हुआ, उल्टी धार बहता हुआ महासागर क्षुब्ध हो गया। नाविक खिन्न हो गये। तब वायु के चलने के आरम्भ में ही सफेद वस्त्र (पाल) को हटाया, नाविकों ने जीवन की आशा के तुल्य लंगर को छोड़ा। तो भी कुछ समय बाद जहाज नष्ट हो गया। प्राण शेष होने के कारण एक काष्ठ-खण्ड मिल गया। दिन-रात समुद्र को पार कर सार्थवाहपुत्र सुवर्णद्वीप के किनारे आ लगा। उसने सोचा- अहो, भाग्य का फल, प्रियतमा और सेवकों की हालत को नहीं जानता हूँ। अथवा विषाद के क्या ? अब यही प्रमाण है। तब केलों का आहार किया । सूर्य अस्त हो गया। उसने पत्तों का बिस्तर बनाया, ठण्ड को दूर करने के लिए लकड़ियों को रगड़कर आग जलायी। कुछ समय तापकर गुरु-देवताओं को प्रणाम कर वह सो गया। रात्रि व्यतीत हुई, (वह) उठ गया। सूर्य निकला। उसने सारी धरती को जलती हुई अग्नि के समान स्वर्णमयी देखा । उसने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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