________________
५००
[समराइच्चकहा
ति । कयाओ इट्टयाओ, अंकियाओ धरणनामएण, उल्लयाणं चेव संपाइया संपुडा, पक्का य सुवष्णमया जाया। एवं च कया णेण दस इट्टयसपुडसहस्सा । निबद्धो भिन्नपोयद्धओ।
इओ य चीणाओ चेव सुक्यणसत्थवाहपुत्तसंतियं असारभंडभरियं अन्नदोवलग्गसंपावियलच्छिसहियं देवउरगामियं समागयं तमद्देसं जाणवत्तं । दिट्ठोय भिन्नपोयद्धओ सत्यवाहेणं । लम्बिया य नंगरा सुवयणाएसेण । समागया निज्जामगा। दिढो य णेहिं धरणो भणिओ य-भो भो महापरिस, एसो चीणवत्थव्वगो देवउरगामी जाणवत्तसंठिओ सुवयणो नाम सत्थवाहपुत्तो भणइ, जहा एहि कूलं गच्छम्ह । धरणेण भणियं-भद्द, किभंडभरियं खु तं जाणवत्तं । निज्जामएहि भणियं-अज्ज, विहिवसेण परिवडिओ खु एसो सत्थवाहपुत्तो विहवेण, न उण पोरुसेणं । ता न सुठ्ठ सारभंडभरियं ति। धरणेण भणियं-जइ एवं, ता अणुवरोहेणं आगच्छउ एत्तियं भूमि सत्थवाहपत्तो। निवेइयं सुवयणस्स । आगओ य एसो, भगिओ धरणेण-सत्थवाहपुत्त, न तए कुप्पियन्वं, पओयणं उद्दिसिऊण किंचि पुच्छामि त्ति । सुवयणेण भगिणं-- भणाउ अज्जो। धरणेण भणियं-केत्तियस्स ते दविण
कृता इष्टकाः, अङ्किता धरणनामकेन आर्द्रकाणामेव सम्पादिताः सम्पुटाः, पक्वाश्च सुवर्णमया जाताः । एवं च कृतानि तेन दश इष्टकासम्पुटसहस्राणि । निबद्धो भिन्नपोतध्वजः।
इतश्च चीनादेव सुवदनसार्थवाहपुत्रसत्कमसारभाण्डभृतमन्यद्वीपलग्नसंप्राप्तलक्ष्मीसहितं देवपुरगामिकं समागतं तमुद्देशं यानपात्रम्। दृष्टश्च भिन्नपोतध्वजः सार्थवाहेन। लम्बिताश्च नाङ्गराः सुवदनादेशेन । समागता निर्यामकाः । दृष्टश्च तैर्धरणो भणितश्च-भो भो महापुरुष ! एष चीनवास्तव्यो देवपुरगामी यानपात्रसंस्थितः सुवदनो नाम सार्थवाहपुत्रो भणति, यथा एहि, कूलं गच्छामः । धरणेन भणितम् - भद्र ! किंभाण्डभृतं खलु तद् यानयात्रम् । निर्यामकर्भणितम् - आर्य ! विधिवशेन परिपतितः खल्वेष सार्थवाहपुत्रो विभवेन, न पुनः पौरुषेण । ततो न सुष्ठु सारभाण्डभृतमिति । धरणेन भणितम् - यद्येवं ततोऽनुपरोधेनागच्छतु एतावती भूमि सार्थवाहपुत्रः । निवेदितं सुवदनस्य । आगतश्चैषः, भणितो धरणेन - सार्थवाहपुत्र ! न त्वया कुपितव्यम, प्रयोजनमुद्दिश्य किंचित् पृच्छामीति । सुवदनेन भणितम् -भणत्वार्यः । धरणेन भणितम् -- कियतस्ते द्रविजातस्य यान
सोचा---'अरे यह धातु का क्षेत्र है, अतः यहाँ पर सोना पकाता हूँ। 'ईंटें' बनायीं, धरण नाम से अंकित की। मिट्टी के गोले बनाये, पकाने पर स्वर्णमयी हो गये । इस प्रकार दश हजार ईंटें बनायीं । जहाज की ध्वजा फट गयी थी, उसे बाँधा।
इधर चीन से ही सुवदन सार्थवाहपुत्र के साथ सामान्य मूल्यवाले माल से भरा हुआ दूसरे द्वीप से प्राप्त लक्ष्मीसहित देवपुर को जानेवाला उसी स्थान पर एक जहाज आ गया। सार्थवाह ने जहाज की फटी हुई ध्वजा देखी। सुवदन के आदेश से लंगर डाले गये। नाविक आये, उन्होंने धरण को देखा और कहा--हे महापुरुष ! यह चीन देश का वासी देवपुर को जानेवाले जहाज में स्थित सुवदन नाम का सार्थवाहपुत्र कहता है-आओ, तट की ओर चलें। धरण ने कहा --- भद्र ! क्या उस जहाज में माल भरा है ? नाविकों ने कहा-आर्य ! दैववश इस सार्थवाहपुत्र के पास धन नहीं है, किन्तु पुरुषार्थ विहीन नहीं, अतः भली प्रकार अच्छा माल नहीं भरा है । धरण ने कहा--यदि ऐसा है तो सार्थवाहपुत्र ! बेरोकटोक इस भूमि पर आ जाएँ । सुवदन से निवेदन किया गया। वह आ गया। धरण ने कहा-सार्थवाहपुत्र ! आप कुपित न हों। किसी विशेष प्रयोजन से कुछ पूछता हूँ । सुवदन ने कहा--आर्य ! पूछिए। धरण ने कहा-तुम्हारे जहाज में कितना धन है ? सुवदन ने कहा--आर्य ! देव की
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org