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छट्ठो भवो ]
अत्तणो समीहियंति । तओ 'अहो से महाणुभावय' त्ति चितिऊण भणियं काल सेणेण - सत्थवाहपुत्त, न सुमरेसि मं सोहविणिवाइयं नागपोययं पिव अत्तणो विणासनिमित्तं अत्तणा चेव जीवाविऊण कयग्घसेहरयभूयं काल सेणं । जीवाविओ अहं तए । मए पण कओ तुज्झ पच्चुवयारो; विओइओ तुमं सत्थाओ, पाविओ य अप्पत्तपुव्वं इमं ईइसि अवत्थं ति । तओ सुमरिऊण पुव्ववृत्तंतं पञ्चहियाणिऊण य कालसेणं लज्जावणयवयणं जंपियं धरणेण - भो महापुरिस, को अहं जीवावियव्वस्स तुह चेव पुष्णपरिणई एस त्ति । कहं च तुमं कयग्धो, जो दिट्ठमेत्त वि जणे अन्नाणओ किंपि काऊण एवं खिज्जति त्ति । ता अमेणा । अह कि पण इमं पत्थयं ति । तओ लज्जापराहीणेण न जंपियं कालसेणेण । साहियं च निरवसेसमेव संगमदंसणाइयं निपाणपरिच्चायववसायावसाणं चेट्ठियं ति किसोरएणं । तओ 'अहो कन्या, अहो थिर सिणेहया, अहो महाणुभावय' त्ति चितिऊण जंपियं धरणेण - भो महापुरिस, तमेव गुरुदेवपूयणं पुप्फब लिगंधचंदणेहि, न उण पाणिघाएणं । अवि य
होज्जा जले वि जलगो होज्जा खीरं वि गोविसाणाओ । अमरसो वि विसाओ न य हिंसाओ हवइ धम्मो ॥। ५२५||
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तया कथया । संपादयतु भवानात्मनः समीहितमिति । ततः 'अहो तस्य महानुभावता' इति चिन्तयित्वा भणितं कालसेनेन - सार्थवाहपुत्र ! न स्मरसि मां सिंहविनिपातितं नागपोतकमिवात्मनो विनाशनिमित्तमात्मनैव जीवयित्वा कृतघ्नशेखरभूतं कालसेनम् । जीवितोऽहं त्वया । मया पुनः कृतस्तव प्रत्युपकारः, वियोजितस्त्वं सार्थात, प्रापितश्चाप्राप्तपूर्वामिमामीदृशीमवस्थामिति । ततः स्मृत्वा पूर्ववृत्तान्तं प्रत्यभिज्ञाय च कालसेनं लज्जावनतवदनं जल्पितं धरणेन - भो महापुरुष कोऽहं जीवयितव्यस्य, तवैव पुण्यपरिणतिरेषेति । कथं च त्वं कृतघ्नः, यो दृष्टमात्रेऽपि जने अज्ञानतः किमपि कृत्वा एवं खिद्यसे इति । ततोऽलमेतेन । अथ किं पुनरिदं प्रस्तुतमिति । ततो लज्जापराधीनेन न जल्पितं कालसेनेन । कथितं च निरवशेषमेव संगमदर्शनादिकं निजप्राणपरित्यागव्यवसायावसानं चेष्टितमिति किशोरकेन । ततः 'अहो तस्य कृतज्ञता, अहो स्थिरस्नेहता, अहो महानुभावता' इति चिन्तयित्वा जल्पितं धरणेन - भो महापुरुष ! युक्तमेव गुरुदेवपूजनं पुष्पबलिगन्धचन्दनैः; न पुनः प्राणिघातेन । अपि च
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भवेज्जलेऽपि ज्वलनो भवेत क्षीरमपि गोविषाणात ।
अमृतरसोऽपि विषाद् न च हिंसाया भवति धर्मः ।। ५२५।।
इस कथा को मत पूछिए । आप अपने इष्टकार्य की पूर्ति कीजिए। तब 'अहो इसकी महानुभावता !' - ऐसा सोच कर कालसेन ने कहा - सार्थवाहपुत्र ! सिंह द्वारा मारे गए हाथी के बच्चे के समान अपने विनाश के निमित्त को स्वयं जिलाकर कृतघ्नता - शिरोमणि मुझ कालसेन की याद नहीं है क्या ? तुमने ही मुझे जीवित किया था । मैंने तुम्हारा प्रत्युपकार किया कि तुम्हें सार्थ से अलग कर दिया और इस अपूर्व अवस्था को प्राप्त करा दिया है। तब पूर्व वृत्तान्त को स्मरण कर कालसेन को पहिचान कर लज्जा से सिर झुकाकर धरण ने कहा, हे महापुरुष ! मैं जीवित करने वाला कौन हूँ ? यह तुम्हारे पुण्य का ही फल है और तुम कृतघ्न कैसे हो जो कि एक बार देखे गए व्यक्ति के प्रति अज्ञान से कुछ करके इस प्रकार खिन्न हो रहे हो ! अतः इससे बस करो अर्थात् पश्चात्ताप मत करो । पुन: यह क्या प्रस्तुत किया ? तब लज्जा से पराधीन हुए कालसेन ने कुछ भी नहीं कहा। संगम का दर्शन, अपने प्राणपरित्यागरूप कार्य का अवसान आदि समस्त क्रियाओं के विषय में किशोरक ने कहा । तब 'अहो उसकी कृतज्ञता, अहो स्थिर प्रेम, अहो महानुभावता ! ऐसा सोचकर धरण ने कहा- हे महापुरुष ! गुरुदेव का पूजन पुष्पोपहार, गन्ध, चन्दनादिक से करना उचित है। प्राणिघात के द्वारा पूजा करना उचित नहीं है । कहा भी हैअग्नि से जल, गाय के सींग से दूध और विष से अमृत की उत्पत्ति भले ही हो, किन्तु ( कदापि ) नहीं होता है ।। ५२५||
हिंसा से धर्म
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