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[ समराइच्चकहा
परोवयारतलिच्छपाए अप्पाणयं वावायणे समप्पेइ; सुमरावेइ मे सत्थवाहपत्तं' ति भणिऊण मच्छिओ कालसेणो, निवडिओ धरणिवतै। वीजिओ किसोरएण। लद्धा चेयणा। भणियं णेण-भद्द किसोरय, निरूवेहि एयं, को उण एसो महाणभावो सत्थवाहपुत्तस्स चेट्टियं अणुकरेइ। निरूविऊण भणियं किसोरएण-भो इमाए अणन्नसरिसीए आगिईए सो चेव मे पडिहाय इति । ता सयमेव निरूवेउ पल्लीवई । तओहरिसविसायगभिणं निरूविओ ण पच्चभिन्नाओ य । छोडिया से बंधा। खरगं मोत्तण निवडिओ चलणेसु। भणियं च ण-सत्यवाहपुत्त, खमियन्वो मह एस अवराहो । धरणेण भणियं-भो महापरिस, अहिप्पेयफलसाहणेण गुणो खु एसो, कहमवराहो त्ति। कालसेणेण चितियं, नणं न एस मंपच्चमिजाणइ ति, तेण एवं मंतेइ ता पयासेमि से अत्ताणयं । भणियं च णेग-सत्थवाहपुत्त, कि ते अहिप्पेयं फलं साहियं ति। धरणेण भणियं-भद्द, पत्थुए वावायणे एयं उज्झिऊण ममेव मरणमणोरहावरणं ति। कालसेणेण भणियं-सत्थवाहपुत्त, किं ते इमस्स निवेयाइसयरस मरणववसायस्स कारणं । धरणेण भणियं-भो महापुरिस, अलमियाणि एयाए कहाए । संपाडेउ भवं
बाष्पजलभतलोचनेन 'अथ कः पुनरेष परोपकारतत्परतया आत्मानं व्यापादने समर्पयति, स्मरयति में सार्थवाहपुत्रम्' इति भणित्वा मूच्छितः कालसेनः, निपतितो धरणीपृष्ठे। वीजितः किशोरकेन । लब्धा चेतना। भणितं च तेन-भद्र किशोरक ! निरूपयैतम्, कः पुनरेष महानुभावः सार्थवाहपुत्रस्य चेष्टितमनुकरोति । निरूप्य भणितं किशोरकेन–भो अनयाऽनन्यसदृश्याऽऽकृत्या स एव मे प्रतिभातीति । ततः स्वयमेव निरूपयतु पल्लीपतिः । ततो हर्ष विषादभितं निरूपितस्तेन प्रत्यभिज्ञातश्च । छोटितास्तस्य बन्धाः । खड्गं मुक्त्वा निपतितश्चरणयोः । भणितं च तेन-सार्थवाहपुत्र ! क्षन्तव्यो ममैषोऽपराधः । धरणेन भणितम्-भो महापुरुष ! अभिप्रेतफलसाधनेन गुणः खल्वेषः, कथमपराध इति । कालसेनेन चिन्तितम् - नूनं नैष मां प्रत्यभिजानातीति तेनैवं मन्त्रयति, ततः प्रकाशयामि तस्मै आत्मानम् । भणितं च तेन-सार्थवाहपुत्र ! किं तेऽभिप्रेतं फलं साधितमिति ! धरणेन भणितम-भद्र ! प्रस्तुते व्यापादने एतमुज्झित्वा ममैव मरणमनोरथापूरणमिति । कालसेनेन भणितम्-सार्थवाहपत्र ! किं तेऽस्य निर्वेदातिशयस्य मरणव्यवसायस्य कारणम्। धरणेन भणितम् - भो महापुरुष! अलमिदानी
कहो । धरण ने कहा-इसे छोड़कर मुझे मार दो। तब आँखों में आँसू भरकर 'यह कौन है जो कि परोपकार में तत्पर होने के कारण अपने आपको मारने के लिए समर्पण करता है ? (यह) मुझे सार्थवाहपुत्र का स्मरण दिलाता हैं-ऐसा कहकर कालसेन मूच्छित हो गया, जमीन पर गिर पड़ा। किशोरक ने पंखे से हवा की। (उसे) होश आया। उसने कहा-भद्र किशोरक ! इसे भली प्रकार देखो, यह कौन महानुभाव हैं जो सार्थवाहपत्र की चेष्टाओं का अनसरण कर रहे हैं। देखकर किशोरक ने कहा-महाशय ! इसकी अभिन्न इस आकृति से मालम होता है कि वही है। अत: स्वामी (पल्लीपति) आप स्वयं ही देखें । अनन्तर हर्ष और विषाद से यक्त होकर उसने देखा और पहिचान लिया। उसके बन्धनों को छडाया। तलवार फैककर चरणों में गिर पड़ा। उसने कहा-सार्थवाहपुत्र ! मेरा यह अपराध क्षमा करो। धरण ने कहा - हे महापुरुष ! इष्ट फल का साधन करना गुण ही है, अपराध कैसे है ? कालसेन ने सोचा- निश्चित ही यह मुझे पहिचानता है, अतः ऐसा कहता है। अतः इसके सामने अपने को प्रकट करता हूँ। उसने कहा-सार्थवाहपुत्र ! तुमने कौन से इष्टकार्य की सिद्धि की ? धरण ने कहाभद्र! मारने के लिए प्रस्तुत इसे छडाकर मेरा ही मनोरथ पूरा हआ। कालसेन ने कहा-सार्थवाहपत्र प्रति अतिशय दुःखानुभूति के कारण मरण का निश्चय करने का क्या कारण है : धरण ने कहा-हे महापुरुष,
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