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________________ छ8ो भवो] ४६३ भणिओ कुरंगओ -हरे, निवेएहि भयवईए बलि । तेण 'जं देवो आणावेइ' ति भणिऊण खित्तो ण केसेसु कड्ढिऊण भयपरायत्तसत्वगत्तो दुग्गिलओ नाम लेहवाहओ। ढोइयं रत्तचंदणसणाहं भायणं । विगयपाणो विव चच्चिओ दुग्गिलओ। कालसेणेण कड्ढियं विज्जछडाडोवभासुरं मंडलग्गं, वाहियं ईसि नियभुयासिहरे । भणिओ य दुग्गिलओ-भद्द, सुदिळं जीवलोयं करेहि। सग्गं तए गंतव्वं, जीवियं मोत्तण किंवा ते संपाडियउ ति। तओ भयाभिभूएण न जंपियं दुग्गिलएणं। पुणो वि भणिओ, पुणो वि न जंपियं ति । अणावरियमणोरहो य न वावाइज्जइ ति विसष्णो कालसेणो। तं च दळूण चितियं धरणेणं-हंत मए वि एवं मरियन्वं ति । ता वरं अपेच्छिऊण दोणसत्तघायं काऊण खणमेत्तपाणपरिरक्खणेग इमस्स उवयारं पढमं विवन्नो म्हि । वावडो य मे विणिवायकरणेसु कयंतो, एसो वि निव्वुओ हवउ त्ति चितिऊण भणिओ कुरंगओ-भद्द, निवेएहि एयस्स महापरिसस्स, जहा 'भयविसण्णो खु एसो तवस्सी, ता कि एइणा; अणभिन्नो अहं पत्यणाए; तहावि भवओ पओयणं पसाहणीयं चेव पत्थेमि एगं पत्थणं' ति। निवेइयं कालसेणस्स । भगियं च णेण, जीवियं मोत्तूण पत्थेउ भद्दो त्ति। धरणेण भणियं-- मोत्तूण एवं मं वावाएसु त्ति । तओ बाहजलभरियलोयणेण अह को उण एसो जानासि' इति भणित्वा भणितः कुरङ्गक:-अरे निवेदय भगवत्यै बलिम् । तेन 'यद्देव आज्ञापयति' इति भणित्वा क्षिप्तोऽनेन केशेषु कर्षित्वा भयपरावृत्तसर्वगात्रो दुर्गिलको नाम लेखवाहक: । ढौकितं रक्तचन्दनसनाथं भाजनम् । विगतप्राण इव चचितो दुर्गिलकः । कालसेनेन कृष्टं विधुच्छटाटोपं भासुरं मण्डलाग्रम्, वाहितमीषद् निजभुजाशिखरे। भणितश्च दुर्गिलक:- भद्र ! सुदृष्टं जीवलोक कूरु । स्वर्गे त्वया गन्तव्यं, जीवितं मुक्त्वा किं वा ते संपाद्यतामिति । ततो भयाभिभूतेन न जल्पितं दुगिलकेन। पुनरपि भणितः पुनरपि न जल्पितमिति । अनापूरितमनोरथश्च न व्यापाद्यते इति विषण्णः कालसेनः । तं च दृष्ट्वा चिन्तितं धरणेन । हन्त मयाऽप्येवं मर्तव्यमिति । ततो वरमप्रेक्ष्य दीनसत्त्वघातं कृत्वा क्षणमात्रप्राणपरिरक्षणेनास्योपकारं प्रथमं विपन्नोऽस्मि । व्यापतश्च मे विनिपातकरणेषु कृतान्तः एषोऽपि निर्वृतो भवत्विति चिन्तयित्वा भणित: कुरङ्गकः-भद्र ! निवेदय एतस्मै महापुरुषाय, यथा 'भयविषण्णः खल्वेष तपस्वी, तत: किमेतेन, अनभिज्ञोऽहं प्रार्थनायाम, तथापि भवतः प्रयोजनं प्रसाधनीयमेव प्रार्थये एकां प्रार्थनामिति । निवेदितं कालसेनाय । भणितं च तेन-जीवितं मुक्त्वा प्रार्थयतां भद्र इति । धरणेन भणितम् - मुक्त्वा एतं मां व्यापादयेति । ततो कुरंगक से कहा-अरे, भगवती के लिए बलि चढ़ाओ। उसने 'जो देव आज्ञा दें' ऐसा कहकर भय से जिसका सारा शरीर काँप रहा था ऐसे गिलक नामक लेख वाहक के बाल खींचकर (उसे) पटक दिया। लाल चन्दन से युक्त पात्र सामने रख दिया। प्राणरहित-से गिलक को अलंकृत किया। कालसेन ने विद्यत् की आभा के समान चमकीली तलवार खींची, तनिक अपने कन्धे तक ले गया। दुर्गिलक से कहा - भद्र! संसार को अच्छी तरह देख लो, तुम्हें स्वर्ग जाना है। प्राणरक्षा के अतिरिक्त तुम्हारा क्या इष्ट कार्य करें। तब भय से अभिभत होकर दुर्गिलक नहीं बोला। फिर से कहा-फिर भी नहीं बोला। 'जिसका मनोरथ पूर्ण नहीं हुआ है ऐसा मनुष्य मारा नहीं जाता है'- ऐसा सोचकर कालसेन दुःखी हुआ। उसे देखकर धरण ने विचार किया--हाय ! मुझे भी इसी प्रकार मरना पड़ेगा । तब दीन प्राणियों का घात देखना अच्छा नहीं है अतः क्षणमात्र के लिए अपने प्राणों की रक्षा न कर इसका उपकार करने के लिए पहले मरना चाहिए। मेंरा अनिष्ट करने में यम (देव) लगा हुआ है, 'यह भी सुखी हो' - ऐसा सोचकर कुरङ्गक से कहा--भद्र ! इन महापुरुष से निवेदन करो कि यह बेचारा भय से दुःखी है, अतः इससे क्या, मैं प्रार्थना नहीं करना चाहता तथापि आपका प्रयोजन सिद्ध हो-इस प्रकार की एक प्रार्थना करता हूँ। कालसेन से निवेदन किया गया। उसने कहा-भद्र ! प्राणदान को छोड़कर अन्य जो प्रार्थना हो उसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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